Tuesday, December 15, 2009

कोई घर ना फिर से उजड़ जाए.....


फिर कहीं राख को कोई कुरेद रहा।
चिंगारी कहीं कोई ना भड़क जाए।
नफरत की इस आँधी में कहीं यारो,
कोई घर ना फिर से उजड़ जाए।

बहुत सोच समझ कर उठाना ये कदम अपना।
कदम कदम पे बारूद मुझ को दिखता है।
आज पैसो की खातिर मेरे वतन मे यारों
जीना मरना भी यहाँ अब बिकता है।
कहीं मोहरा बन के उनके हाथों का,
कोड़ीयों के भाव ना कहीं तू बिक जाए।
नफरत की इस आँधी में कहीं यारो,
कोई घर ना फिर से उजड़ जाए।

खेल ये खेलते है जिन की नजर कुर्सी हैं।
कुर्सी की खातिर जो सदा जीते मरते हैं।
जानता मैं भी हूँ ,तू भी जानता है उन्हें,
फिर क्यूँ उन की बात पर यकी करते हैं?
हरिक बार करते हैं वो सच का दावा,
कहीं उन के दावे पर ना तू बहक जाए।
नफरत की इस आँधी में कहीं यारो,
कोई घर ना फिर से उजड़ जाए।

25 comments:

  1. बेहतरीन ...सुंदर शब्दों के साथ ...बहुत सुंदर रचना......

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  2. बहुत सुन्दर संदेश देती रचना, बधाई.

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  3. बहुत ही सामयिक और सा्र्थक रचना .....

    अजय कुमार झा

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  4. वास्तविक परिस्थिति का चित्रांकन ! सुन्दर रचना । आभार ।

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  5. behtreen shabd ......behtreen abhivyakti...........yatharth ka chitran.

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  6. एक आम भारतीय की मनोदशा की दर्शाती अंतर्मन में कंपन पैदा करने वाली एक बेहतरीन रचना

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  7. बेहतरीन ......... सच कहा है ...... इस घर को उजाड़ने से बचाना है ....

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  8. शब्द अगर सुन्दर होते हैं तो रचनाएं खुदबखुद सुन्दर बन पड़ती हैं

    सुन्दर रचना

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  9. बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना, बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिये आभार

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  10. बहुत सार्थक कहा आपने!

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  11. बहुत सही लिखा है।
    सुन्दर रचना।

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  12. बिलकुल सही कहा है बहुत सुन्दर और सार्थक सन्देश बधाई

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  13. behtareen rachna ...ek bahut hi achha sandesh liye huye.

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  14. बहुत सामयिक और दिल से निकली हुई कविता । मेरे दिल में भी कुछ ऐसा ही घुमडता रहता है ।

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  15. आपने तो तकरीबन वही बात अपनी रचना के माध्यम से बड़ी सफाई से कह दी जो हम भी कहने की कोशिश कर रहे हैं. इस सफल रचना के लिए बधाई. यार, आप अनुपस्थित बहुत होते हो, जरा जल्दी जल्दी मिला करो ना!

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  16. नफरत की इस आँधी में कहीं यारों
    कोई घर ना फिर से उजड़ जाय
    --वाह!

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  17. वाह वाह. सुंदर रचना.

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  18. सही चित्रण किया है आपने. सन्देश देती आँखे खोलती रचना

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