Monday, February 1, 2010

किसी से भी नही गिला.....


संभल
कर जब भी चला
सिवा ठोकर के मुझे क्या मिला ?
लेकिन मुझे इस बात का
किसी से भी नही गिला।

क्योंकि मेरा संभलना,
उन मेरे अपनों के लिए

दुखदाई
हो जाता है।
जिन्हें मेरी लापरवाही से चलना
बहुत भाता है।

इसी लिए मेरा इस तरह चलना
उन्हे रास्तों मे पत्थर रखने को
मजबूर करता है।
उनके भीतर
ईष्या को
भरता है।

ऐसे में जब भी मैं ,
अपने आप से पूछता हूँ...
इस ईष्या को
जन्म देना वाला कौन हैं ?
मेरे भीतर से
कोई आवाज नही आती,
वहाँ सिर्फ मौन है।

इस मौन की परतों को
अक्सर मै खोलता रहता हूँ
इस उम्मीद के साथ....
शायद कभी ,कहीं, बहुत गहरे में,
छुपा कोई उत्तर मुझे मिल जाए....
पत्थर रखने वालो के मन में,
कोई फूल खिल जाए।
इस तरह उनका भी होगा भला,
मेरा भी होगा भला।
लेकिन मेरे विश्वास ने
हर बार है छला।
लेकिन मुझे इस बात का
किसी से भी नही गिला।

18 comments:

  1. बहुत बढ़िया भाई..वाह!

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  2. सुंदर भावाभिव्यक्ति ,बधाई

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  3. Paramjeet ji
    aajkal insaan ko jyadatatardhokha hi milata hai,chaahe vo thokar patthar dwaara hi
    hi kyon na mili ho.iswar par bharosa kar ke apane
    viswaas par viwaas karen.shubh kamanaon ke saath .

    Poonam

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  4. shayad aapke blog par pahlibaar ana hua.. aur itni sundar rachna hamein padhne ko mili...

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  5. आपके विचार दिल की गहराईयों को छूते हैं।

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  6. बहुत ही खूबसूरत कविता..... आपने तो निःशब्द कर दिया....

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  7. मेरे विश्वास ने मुझे हर बार छला है
    फिर भी किसी से गिला नहीं
    बाली जी दिल को छू गयी आपकी रचना शायद ये कबीर वाणी का प्रभाव है । बहुत सुन्दर रचना है बधाई

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  8. शिधाई से दिल की बात कही गयी है बहुत सुन्दर रचना


    बस कहीं कहीं लगा की कविता करने पर जोर दे रहे हैं आप. ऐसा बस मुझे लगा इसके लिए दिल पर बोझ न लीजियेगा अगर मैं कवि होता तो शायद ये शिकायत न करता

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