Monday, October 11, 2010

काश! ऐसा हो सकता..............

हम वहीं हैं हम जहाँ थे इक कदम बढ़ पाये ना।
आँख का पानी तो सूखा सुख के बादल छाये ना।
हक के लिये जिसके, यहाँ इंसान देखो लड़ रहा,
दिल मे रहता है सभी के ये समझ उसे आये ना।


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जब भी
आकाश की ओर देखता हूँ
उसे मुस्कराता ही पाता हूँ
ना मालूम किस बात पर
वह इस तरह मुस्कराता है ?
जरा तुम भी सोचना....
मैं भी सोच रहा हूँ.......
वह किस घर मे समा सकता है??
यहीं सोच-सोच कर
अपना सिर नोंच रहा हूँ।


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यदि मेरे बस मे होता
ये मंदिर,मस्ज़िद,
गिरजे ,गु्रूद्वारे।
इस धरती से हटवा देता।
उस राम का,खुदा का,
निरंकार और जीसस का,
एक सुन्दर -सा घर
तेरे दिल मे बनवा देता।

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16 comments:

  1. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति, सारगर्भित भाव अच्छा लगा !

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  2. ओशो ने पूछा है,ज़रा सोचो,जिस प्रकृति को तुम कहते हो कि उसने इतना विराट् संसार बनाया,वह स्वयं कितना विराट् होगा। इतना विराट् स्वरूप तुम्हारे इस छोटे से पूजास्थल में कैसे समाएगा?

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  3. बहुत सुंदर संदेश देती आप की यह कविता धन्यवाद

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  4. बहुत खूब .... लाजवाब बात कही है .... काश सब ऐसा सोच लें ...

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  5. behatar soch par adharit apki rachana,sunder hi nahi sampreshaneeyata se bhi bharpoor hai.

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  6. बाली जी ,
    अज्ज ते बस कमाल ही है .....
    उस राम का खुदा का
    निरंकार और जीसस का
    एक सुन्दर सा घर
    तेरे दिल में बनवा देता ....

    क्या बात है ....
    आशिक हो तो आप जैसा ....!!

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  7. लाजवाब ............

    बेमिसाल.........

    हार्दिक शुभकामनाएं...........



    चन्द्र मोहन गुप्त

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  8. बहुत सुन्दर कृति है
    बहुत - बहुत शुभकामना

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  9. सभी रचना एक से बढ़कर एक. एक नया सन्देश देती हुई.

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  10. देर से आने के लिये क्षमा चाहती हूंम कई दिन से कम्प्यूटर खराब था।
    हमेशा की तरह दिल से लिखी गयी सुन्दर अभिव्यक्तियां। बधाई\

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  11. यही सोच सोच कर अपना सिर नोच रहा हूं। सुन्दर्।

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