Wednesday, January 18, 2012

पत्थर और आदमी



पत्थर और आदमी में
अब फर्क नज़र आता नही।
इस लिये दिल से यहाँ ,
कोई गीत अब गाता नही।
खामोश है यहाँ हर नजर, 
आकाश में उठती हुई -
उडता हुआ कोई परिंदा ,
नजर अब आता नही।
सोचता हूँ गीत यहाँ 
किसके लिये अब गाँऊ मैं,
गीत अपना अपने को,   
अब जरा भाता नही।
पत्थर और आदमी में
अब फर्क नज़र आता नही।

10 comments:

  1. बिल्कुल सही कहा ………सुन्दर रचना।

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  2. आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें

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  3. सत्य है... हर ओर संवेदनशून्यता विद्यमान है!
    सुन्दर रचना!

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  4. वाह क्या कहने बहुत ही अच्छा और सच्चा लिखा है आपने बधाई स्वीकार करें ...

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  5. गहरी अभिव्‍यक्ति।
    सुंदर रचना।

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  6. सुन्दर रचना...
    कड़वा सच है ये...

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  7. Pathar aur insaan main kkoi fark nahi, tabhi to mujhe hindi main tippini dena bhi nahi aata.

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