Wednesday, April 11, 2012

उजाला


गई रात देखो
सिमटा अंधेरा
उजाला हुआ है
फिर जिन्दगी में।

चलो! पक्षीयों से
गगन में उड़े हम,
देखे कहाँ पर
खुशीयां पडी हैं।
है कौन-सी वो
धरा यहाँ पर
गर्भ मे जिसके
खुशीयां गड़ी हैं।

चुनने को आजाद
है अपना मन भी।
जो चाहो चुनों तुम
खुशी है तुम्हारी।
दुखों की कमी कोई
नजर नही आती।
खुशीयां सभी को
बहुत हैं सुहाती।

मिला कब है चाहा
किसी को यहाँ पर।
फिर भी उम्मीद
हरिक मन  सजी हैं।
पर को परास्त
करनें की चाहत।
भीतर तेरे औ’ मेरे
भी जगी है।

छोड़ो मन इस
आपाधापी का संग्राम,
किसी को भला क्या
इसने दिया है।
स्वागत करों तुम
किरण ने छुआ है।
जगी हैं उमंगें
इस रीते मन मॆं।

गई रात देखो
सिमटा अंधेरा
उजाला हुआ है
फिर जिन्दगी में।

21 comments:

  1. बहुत सुंदर....................
    उम्मीदों और आशाओं से भरपूर रचना.

    बधाई.
    अनु

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  2. बिल्‍कुल सच कहा है आपने प्रत्‍येक पंक्ति में ..आभार इस बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिये ।

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  3. जीवन के उजाले का स्वागत करना चाहिए ... जो बीत गया सो बीत गया ...

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  4. आपाधापी अस्त हुयी, अब नया सबेरा आने दो

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  5. बहुत ही बढि़या अभिव्‍यक्ति ।

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  6. उजाले बनाये रखने का प्रयास सार्थक विचार है...

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  7. आशा की किरने जगाती हुई रचना ...क्या रखा है आपाधापी में जहां खुशियाँ मिले समेत लो बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति

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  8. आपकी पोस्ट चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    http://charchamanch.blogspot.in/2012/04/847.html
    चर्चा - 847:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  9. वाह बेहद खूबसूरत एहसास

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  10. बहुत सुन्दर और सार्थक रचना....

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  11. भावपूर्ण उत्कृष्ट प्रस्तुति,शुभकामनाएं
    कृपया अवलोकन करे ,मेरी नई पोस्ट ''अरे तू भी बोल्ड हो गई,और मै भी''

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  12. सुन्दर और आशापूर्ण भाव, बधाई.

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  13. भावपूर्ण उत्कृष्ट प्रस्तुति,मेरी शुभकामनायें

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  14. aasha ki kirno ko smete hue
    bhaavpoorn shabdaavali !
    sundar rachnaa !!

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