Thursday, November 22, 2007

ना जानें क्या......

ना जानें क्या
अतीत में
ढूंढता है मन मेरा।
उन खंडरों के बीच,
ना मैं हूँ,
ना कोई घर मेरा।

पर जोह रहा हूँ बाट कब से
उसके आनें की सदा।
आएगा या ना आएगा तू ,
देखता रस्ता तेरा।

टूट कर पत्तें गिरें,
जो भी, पीलें हो गए।
वृक्ष से हो कर जुदा,
जा कर कहीं पर सो गए।

कल हाल अपना भी यहीं,
होना है,मन जानें सदा।
दुनिया की फुलवारी से जैसे,
फूल होते हैं जुदा।

ना जानें क्या
अतीत में
ढूंढता है मन मेरा।
उन खंडरों के बीच,
ना मैं हूँ,
ना कोई घर मेरा।

5 comments:

  1. आप कि कविता पढ़ कर बहुतसी पुरानी यादें ताज़ा हो गई है. कविता अच्छी लगी. बधाई.

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  2. बहुत खूब लिखा है आपने परमजीत जी ..पढ़ के बहुत अच्छा लगा

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  3. आपकी कविता अत्यन्त सुंदर और संवेदना को छूती हुई है , बधाईयाँ !

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  4. आपका ब्लाग अच्छा है. यह कविता अच्छी लगी.
    धन्यवाद.

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