Thursday, September 11, 2008

बेचारा !

यह एक बहुत पुरानी रचना है जो कभी बचपन में लिखी थी।वही आज यहाँ लिख रहा हूँ।वास्तव में यह वह पहली रचना है जो कभी किसी छोटी-सी पत्रिका में प्रका्शित हुई थी और जिस पत्रिका में प्रकाशित हुई थी वह शायद साल दो साल बाद बंद भी हो गई थी।लेकिन फिर भी इस के प्रकाशित होनें के बाद ही मुझे कविताएं लिखने का शोक पैदा हुआ था। जो आज तक बरकरार है।


ये धरती के छंद

जिनकी गति है मंद

चलते हैं आहिस्ते-आहिस्ते

मुख में गीत गाते

गम के हो या खुशी के

बस एक पंक्ति दोहराते

अंधे विवेक का मानव

अंधियारों के डिम्ब जाल में

उतर गया है या

फँस गया

बेचारा!

12 comments:

  1. अंधे विवेक का मानव
    अंधियारों के डिम्ब जाल में
    उतर गया है या
    फँस गया
    " great thoughts, composed beautifully"
    Regards

    ReplyDelete
  2. अपने बहुत ही अच्छा लिखा है ......सुंदर भाव हैं......मन को छु गये हैं

    ReplyDelete
  3. बहुत अच्छा लिखा है. बधाई.

    ReplyDelete
  4. अरे वाह! बचपन हो या पचपन, एक अच्छा कवि अच्छा कवि होता ही है.

    ReplyDelete
  5. आहा! वाह भई वाह क्या कविता है!

    ReplyDelete
  6. उम्र के हि‍साब से भाव काफी गहन हैं। अच्‍छी कवि‍ता।

    ReplyDelete
  7. बहुत ही सुंदर भाव हैं, धन्यवाद

    ReplyDelete
  8. बहुत सुंदर........पूत के पांव पालने में ही दिख गये थे. :)

    ReplyDelete

आप द्वारा की गई टिप्पणीयां आप के ब्लोग पर पहुँचनें में मदद करती हैं और आप के द्वारा की गई टिप्पणी मेरा मार्गदर्शन करती है।अत: अपनी प्रतिक्रिया अवश्य टिप्पणी के रूप में दें।