Sunday, November 9, 2008

खोया हुआ घर


कब चाहा है हमनें कभी

सभी का सुख

झाँक कर देखों जरा भीतर,

दूसरे का सुख तभी तक चाहते हैं

गर छुपा हो सुख अपना वहाँ पर।


पाया जब मैनें तो मेहनत यह मेरी

खो गया कुछ तो समझा लूटा किसी ने।

व्यर्थ का इक जाल बुन बैठा हूँ यारों-

झूठ को, अपना सच मानने पर।

दोष अक्सर दूसरों को दे रहा हूँ,

भय लगा रहता है ना देखूँ आईना पर।


देख वाहनों को पड़ोसी के घरों में,

हमको भी वाहन चाहिए

भले ना हो, जरूरत।

मन मेरा मुझको कहाँ ले जा रहा है?

नित नयी अभिलाषाओं का तुफान ला कर।


जिन्दगी अपनी ये क्या हो गई है?

आज अपनी हँसी भी खो गई है।

दोड़ना बस दोड़ते रहना यहाँ पर,

मंजिले सब की कहाँ पर खो गई है।

थक चुका , फिर भी चलता जा रहा हूँ

ढूढं पाऊँगा क्या मैं खोया हुआ घर।


कब चाहा है हमनें कभी

सभी का सुख

झाँक कर देखों जरा भीतर,

दूसरे का सुख तभी तक चाहते हैं

गर छुपा हो सुख अपना वहाँ पर।




12 comments:

  1. पाया जब मैंने तो मेहनत यह मेरी ,
    खो गया कुछ तो समझा लुटा किसी ने ...

    बहोत खूब परम साहब बहोत सुंदर लिखा है आपने ..

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  2. बिलकुल सही लिखा आप ने.
    धन्यवाद

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  3. "खो गया कुछ तो समझा लूटा किसी ने।"

    सुंदर

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  4. bahut sahi kaha,es bhagam daud mein apni hansi kahi bhul gaye hai,bahut sundar

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  5. भाई परम....आपकी सारी छोटी-छोटी मगर गहरी-गहरी चीजें आए दिन मेरी आंखों के रस्ते मेरे दिल में उतर जाया करती है...बेशक कोई कमेन्ट नहीं दे पाता....गहरी चीजों पर कमेन्ट...बाप-रे-बाप......बल्कि उन्हें दिल में जज्ब कर लेना चाहिए....सो करने की चेष्टा करता हूँ.....!!

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  6. बहुत सुन्दर, सच अभिव्यक्ति के लिए साहस चाहिए...

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  7. बधाई इस खूबसूरत कविता के लिये शुभकामनाएं

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  8. बहुत बढ़िया विचारोत्तेजक रचना. बहुत बधाई.

    पाया जब मैंने तो मेहनत यह मेरी ,
    खो गया कुछ तो समझा लुटा किसी ने !!

    क्या बात है!

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  9. Waah ! bahut sundar rachna......
    ekdam satya kaha aapne.

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  10. व्यर्थ का इक जाल बुन बैठा हूँ यारों-
    झूठ को, अपना सच मानने पर।
    दोष अक्सर दूसरों को दे रहा हूँ,
    भय लगा रहता है ना देखूँ आईना पर।
    bilkul sahi kaha,hum apna dosh kisi aur ke mathe gadh dete hai,ek bahut hi achhi kavita,kuch sandes bhi dee hai hame.

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