Friday, August 24, 2007

आया प्रभात



जाग मन अब नींद से, आया प्रभात ।

पक्षियॊं का शोर अब चहो ओर है ।
पर संभल, नयी नही यह भोर है ।
रोशनी ने छेड़ दी शहनाईयाँ,
छुप के बैठा हरिक मन में चोर है ।
खुद को कचौटा करती है यह बात ।
जाग मन अब नीदं से, आया प्रभात ।

भोर की जिज्ञासा, सभी के मन बसी ।
सदा दूसरों की लगामें, हमनें कसी ।
झाँक भीतर अपनें, कभी देखा नही,
आईनों में देख मुख, आती हँसी ।
चाहता कौन सुनना, दूसरों की बात ।
जाग मन अब नीदं से, आया प्रभात ।

चल रहा कब से धरा का बोझ बन ।
ठूँठ-सा, लिए नग्नता खड़ा है तन ।
जान कर भी तू बना, अंजान है,
कर रहे तेरा हरण, तेरा जतन ।
किसको देना चाह रहा, यहाँ मात ।
जाग मन अब नींद से, आया प्रभात ।

बोझ नित बढ़ता, जो तेरा पग बढ़ा ।
शब्द बंधन हो गया, जिसको गड़ा ।
पलट पड़ती कानों मे, शहनाईयाँ,
पर्वतों के सामनें, जो शब्द जड़ा ।
चल गया जो तीर फिर आए ना हाथ ।
जाग मन अब नीदं से, आया प्रभात ।

5 comments:

  1. पढ़ कर आनंद आ गया।बहुत सुन्दर लिखा है.

    बोझ नित बढ़ता, जो तेरा पग बढ़ा ।
    शब्द बंधन हो गया, जिसको गड़ा ।
    पलट पड़ती कानों मे, शहनाईयाँ,
    पर्वतों के सामनें, जो शब्द जड़ा ।
    चल गया जो तीर फिर आए ना हाथ ।
    जाग मन अब नीदं से, आया प्रभात ।

    ReplyDelete
  2. मर्म को छू लेने वाली रचना
    दीपक भारतदीप

    ReplyDelete
  3. बहुत उत्तम रचना !

    ReplyDelete
  4. बहुत बेहतरीन संदेश प्रसारित करती रचना-एकदम सफल!!

    जाग मन अब नीदं से, आया प्रभात ।

    -बहुत उम्दा. बधाई.

    ReplyDelete
  5. परमजीत, आपकी रचनायें दिन प्रति दिन सशक्त होती जा रही हैं. लिखते जायें ! आपकी लेखनी बहुतों को स्पर्श कर रही है -- शास्त्री जे सी फिलिप

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
    http://www.Sarathi.info

    ReplyDelete

आप द्वारा की गई टिप्पणीयां आप के ब्लोग पर पहुँचनें में मदद करती हैं और आप के द्वारा की गई टिप्पणी मेरा मार्गदर्शन करती है।अत: अपनी प्रतिक्रिया अवश्य टिप्पणी के रूप में दें।