Sunday, August 5, 2007

चलो ! अब तो जग जाएं

सो चुके बहुत हम,

चलो! अब तो जग जाएं ।


बोझिल नैयनों में सपनें कहाँ ठहरेंगें

तिमिर निशाचर ग्रसनें को

तैयार यहाँ।

खड़ा शुष्क मन एंकाकी

कोलाहल भीतर

सुन नहीं पाता अक्सर

स्वय़ं से बात जो कहता

अपनें ही उत्थान-पतन की चर्चाओं में

खो जाता है मकड़ी के जालों-सा उलझा

शंकाओं के सागर में, कहीं डूब ना जाए।


सो चुके बहुत हम,

चलों ! अब तो जग जाएं।



मधुमासों की गणना, किसने रखी है

मुदित मनोहर मदमाती महकी जब बगिया।

निजता का आभास बहुत,भरमा जाता है

विस्मृत हो स्वयं से, कही समा जाता है

जब जगता है लगता है,मैं बहक गया था

अपने भीतर उठती-गिरती,सागर लहरों में

आनंदित हो नर्तन करती जो मुसकाती

कुछ गाती थी फिर भी,मै जान ना पाया

दोहराने को अक्सर, उनको मन करता है ।

समझ ना पाया हो जो स्वर,वे कैसे गाएं ?



सो चुके बहुत हम,

चलो! अब तो जग जाएं।


क्षण-भर की वह जाग थी क्या,जान ना पाया

शुभ्र प्रकाश-वेलाएं अंनत दिनकर-सी लगती

भीतर खिचंता गया,भीतर के भीतर

जैसे सागर में गिरे कोइ नमक की ढेहली
समझ ना पाया वह,सच था या सपना

हुआ विलीन कैसे,अपने ही भीतर

सोच-सोच थक गया, कोई संगी समझाएं ।


सो चुके बहुत हम,

चलो! अब तो जग जाएं ।


संवेदनाऒं के बाण,अक्सर पीड़ा दे जाते

यहाँ सभी अपने हैं मैं सोच रहा था

नैयनों में काली बदली,कब घिर जाती

गरज,बरस शब्दों की,बंजर धरती पर

नदी,नालों,पोखर पर्वत घाटी के भीतर

हो विलीन जाती है पर मै खोज रहा था

ऐसे में क्यूँ ओस कणों से प्यास बुझाएं ।


सो चुके बहुत हम ,

चलो! अब तो जग जाएं ।

6 comments:

  1. बहुत गहरी बातें हैं आप की इस रचना में । अपने को जानने की अभिलाषा में अपने भीतर लगाई डुबकी को शब्दों मे ड़ालना बहुत कठिन ही नही असंभव होता है।लेकिन आप ने प्रयास अच्छा किया है।अध्यातम पर लिखी यह रचना अच्छी बन पड़ी है।यह शब्द प्रमाणित करते हैं कि आप अपनी भीतर की यात्रा में सफल रहे। बधाई।
    मधुमासों की गणना, किसने रखी है
    मुदित मनोहर मदमाती महकी जब बगिया।
    निजता का आभास बहुत,भरमा जाता है
    विस्मृत हो स्वयं से, कही समा जाता है
    जब जगता है लगता है,मैं बहक गया था
    अपने भीतर उठती-गिरती,सागर लहरों में
    आनंदित हो नर्तन करती जो मुसकाती
    कुछ गाती थी फिर भी,मै जान ना पाया
    दोहराने को अक्सर, उनको मन करता है ।
    समझ ना पाया हो जो स्वर,वे कैसे गाएं ?

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  2. बहुत बढ़िया और गहरी रचना के लिये बधाई स्विकारें.

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  3. शानदार रचना… काफी गहरी बात कह दी…
    साधूवाद!!!

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  4. परमजीत बाली जी
    आपके रचनाएं सटीक हैं

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  5. खड़ा शुष्क मन एंकाकी


    कोलाहल भीतर


    सुन नहीं पाता अक्सर


    स्वय़ं से बात जो कहता


    अपनें ही उत्थान-पतन की चर्चाओं में


    खो जाता है मकड़ी के जालों-सा उलझा


    शंकाओं के सागर में, कहीं डूब ना जाए।
    -------------------------
    परमजीत जी
    आपके इन पंक्तियों ने दिल ने दिल को छू लिया
    दीपक भारतदीप

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  6. खड़ा शुष्क मन एंकाकी

    कोलाहल भीतर

    सुन नहीं पाता अक्सर

    स्वय़ं से बात जो कहता

    अपनें ही उत्थान-पतन की चर्चाओं में

    खो जाता है मकड़ी के जालों-सा उलझा

    शंकाओं के सागर में, कहीं डूब ना जाए।


    सो चुके बहुत हम,

    चलों ! अब तो जग जाएं।
    ---------

    बहुत सुन्दर रचना। बधाई।

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