Saturday, July 14, 2007

मुक्तक-माला-१

क्या ये है जिन्दगी, राह फूल खारों की।
बनते बिगड़ते कारवाँ, ओ-बहारों की।
खेलती है कश्ती मोहब्बत मे तूफां से,
उम्मीद बनी रहती जहाँ किनारो की।
स्याह राहों पे गुजर जानें दो मुझको।
तन्हाइयों में ये अक्सर मुकाम आएगा।
लौ कहाँ से लाऊं,दिले खाक मुसाफिर,
आधी जिन्दगी का हिस्सा,अंधेरे में जाएगा।
जलकर बाती ने जब, अंधेरा निगल लिआ।
अंधियारे मे भटके राही को राह मिली।
शूलों की चुभन,चुम्बन समझनें वालो को,
ऎसा लगा,शूलों पर रहकर कलि खिली।

11 comments:

  1. बढ़ियां मुक्तक. बधाई.

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  2. अच्छा लिखा है. कामना है निरंतर पोरगति करो

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  3. सुन्दर भाव भरे मुकत्क है. बधाई हो

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  4. भाषा और भाव एक मद में पिरोय है…इसकारण इसकी सुंदरता काफी अच्छी और स्वभाविक बन पड़ी है…।

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  5. बहुत सुंदर लिखा है आपने...अच्छा लगा पढ़कर ...बधाई

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  6. बाली साहब कवियों के लिए ब्लाग किसी वरदान से कम नहीं है। लिखते रहिये हम दुम हिलाने का वादा करते हैं।

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  7. यह क्या खेल है बाली जी,
    रचना 14 जुलाई की और टिप्पणियां 15 मई की.
    वल्लाह कौन सा साफ्टवेयर विकसित कर लिया आपने?

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  8. ये क्या महाराज?? फिर से टिप्पणियों समेत?

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  9. संजय जी व समीर जी, यह सब गलती से हुआ है। मुक्तक माला-५ की जगह मुक्तक माला-१ पब्लिश हो गई। असुवि्धा के लिए क्षमा चाहता हूँ।

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  10. Paramjeetji,mere blogpe aapki tippanike liye bahut dhanyawad !Dishaye behad achhi lagee!
    Kshama chahtee hu,mai yanhape Devnagrime nahee likh payee.
    shama

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