Saturday, July 21, 2007

हर मोहल्ले में छुपा इक डोन है

नोट- यह रचना चीख़ !! लेख से प्रभावित हो कर लिखी गई है। उसे अवश्य पढ़ें।

चीख़ !! को सुनता यहाँ पर कौन है
झूझता निजता से इस लिए मौन है
मर चुकी इन्सान मे इन्सानियत
हर मोहल्ले मे छुपा इक डोन है।


आँसू आँखों में दे गई, ये दास्तां
कौन उनकी अस्मतो को ढाँपता
ताकते हैं मूँह इक दूजे का हम
काश! ऊपर से जरा तू झाँकता।

क्या ये सच है? तू ही कण-कण मे छुपा
पत्ता तुझ बिन हिल कहीं सकता नहीं
फिर यहाँ जो कुछ दिखाई दे रहा
जिम्मेवार बातों का यहाँ, फिर कौन है?

हर मोहल्ले में छुपा इक डोन है।

पंच परमेश्वर, कहाँ पर खो गए ?
आसन पंचेन्द्रियाँ जमा बैठी हुई।
आँचलों को तूफानों का खतरा नहीं
दी पनाह जिनको , उन्हीं पर लोन है।

हर मोहल्ले मे छुपा इक डोन है।

कर्ज तो चुकता करो ऐ आदमी
किस्तों मे ही हो भले अदायगी
मर रही तिल-तिल तुझे दिखता नही
इन्सान है या जानवर, तू कौन है?

हर मोहल्ले में छुपा इक डोन है।

7 comments:

  1. कर्ज तो चुकता करो ऐ आदमी, किस्तों मे ही हो भले अदायगी...
    समाज के इसी कर्ज को चुकता करने की जरूरत है।

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  2. जान कर सुखद लगा कि राजन के लेख "चीख" ने कई दिल झिन्झोड़े हैं,
    आपने प्रयास सही किया है,पर इसे केवल प्रयास ही मत रहने दें,आप भी किसी एक बुराई को खत्म करने का बीड़ा उठाएँ....

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  3. परमजीत जी,किसी लेख से प्रभावित हो रचना लिख देना एक रचनाकार की संवेदनशीलता को दर्शाता है।उस लेख"चीख!" को पढकर सचमुच एक संवेदन शील ह्र्दय पर गहरा प्रभाव पड़्ता है। समाज की इन कुरीतियॊं को सब को मिल कर दूर करने का प्रयास करना चाहिए।आप की ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी-

    कर्ज तो चुकता करो ऐ आदमी
    किस्तों मे ही हो भले अदायगी
    मर रही तिल-तिल तुझे दिखता नही
    इन्सान है या जानवर, तू कौन है?

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  4. परमजीत जीं,
    आपने बिल्कुल सही लिखा है।
    दीपक भारत दीप

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  5. बहुत सही. एकदम सटीक रचना. चीख ने हमें भी बहुत प्रभावित किया. आपने तो अपनेऔदगार इतने बेहतरीन अंदाज में पेश किये है कि क्या कहें. बस साधुवाद.

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  6. पूरी रचना बहुत अच्छी है पर आख़िर की चार लाइने तो कमाल की है।

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