अपने ही जब गैर हुए जाते हैं,
दिले-दर्द बनकर ठहर जाते है।
कभी आँख का आँसू
कभी बादल-बिजली
तन्हा स्याह रातें मे
खौफ-जदा़ करते साये
मेरी नींदें चुरा कर
गुम हो जाते हैं।
अपने ही जब गैर हुए जाते हैं,
दिले-दर्द बनकर ठहर जाते हैं।
याद करते रहते हैं
अपने बीते पल को
जो कभी साथ-साथ
गुजारे थे।
तुम दोड़े चले आते थे
आधी रातों को
हम जब भी कभी
पुकारे थे।
वो खुशनुमा पल
हमारे जीवन के
इतनी जल्दी
गुजर कयूँ जाते हैं।
अपने ही जब गैर हुए जाते हैं,
दिले-दर्द बनकर ठहर जाते हैं।