
यह समय हरेक इंसान के जीवन में आता है, जब यह कामाग्नी इन्सान के भीतर एक चिंगारी बन कर फूटती है और फिर छोटे-छोटे हवा के थपेड़े उसे धीरे-धीरे इतना भड़का देते हैं कि इस आग के लपेटे में जो भी फँसता है...वह इस आग में जल कर भस्म हुए बिना नही बचता।भले ही किसी के जीवन में यह अवसर सिर्फ एक बार ही आए।पता नही कोई इससे बचा भी है या नही?लेकिन जीवन की इस सच्चाई को कैसे झुठलाया जा सकता है....शायद यह कोई नही जानता।इसी सोच नें इस कविता को जन्म दिया है......
अरे मन !
क्यूँ भटकाता है?
पता नही-
तू मेरा मालिक है या मैं?
लेकिन हरिक स्वयं को बताता है।
ऐसा क्यूँ कर होता है-
हर नव यौवना बराबर की लगती है।
दो पत्थरों के आपस में छूते ही
आग-सी जलती है?
शायद
मेरे भीतर कुछ गलत है
जो मुझ को भटकाता है।
लेकिन उस गलत को
कौन ढूँढ पाता है?
पता नही हजारों हजार बार,
शायद जन्म जन्मान्तरों से,
चलते-चलते अनायास
इंसान गिर जाता है।
होश में आनें के बाद,
अपनें को गलियाता है।
लेकिन फिर भी,
सुन्दरता के भीतर
अक्सर ढूंढ लेता है तुम्हें
और स्वयं को,
जल रही कामाग्नी के बीच
पंतगा बन फड़फड़ते हुए।
पंतगा पहले दिन
लौं को देख मचलता है।
दूसरे दिन कुछ करीब आता है।
तीसरे दिन लौं पर मडराता है
और चौथे दिन .........
उसी में समा जाता है।
जानता था इस में जले बिना
ना जान पाएगा।
इस जाननें की अभिलाषा में,
स्वयं को गँवाएगा।
नही जानता-
क्या लौ भी वही महसूस करती है....
जो पंतगा करता है।
या हर दीया....
पंतगे के लिए जलता है।
अक्सर
इसी सोच-विचार में,
यह मन अटक जाता है।
अरे मन !
क्यूँ भटकाता है?
पता नही-
तू मेरा मालिक है या मैं?
लेकिन हरिक स्वयं को बताता है।