Tuesday, December 30, 2008

कैसे वादे हैं तेरे


कैसी कसमें हैं तेरी, कैसे वादे हैं तेरे,
हर सहर खाते हो, शबमें, भूल जाते हो।
इससे अच्छा था , कोई वादा ना करते हमसे,
बेवजह रोज, शर्मिंदगी, उठाते हो।
जानते हैं, तुम्हारे दिलमें कोई, गैर रहता है,
नामालूम कैसे, दोनों से, निभाते हो।
भूलना चाहा बहुत, भूल ना पाया कोई,
दिल के हाथों, मजबूर,जब हो जाते हो।
अजीब बात है, हर दिल की ,यही कहानी है,
परमजीत हँसेगें गैर,आँसू जो बहाते हो।

कैसी कसमें हैं तेरी, कैसे वादे हैं तेरे,
हर सहर खाते हो, शबमें, भूल जाते हो।

Thursday, December 25, 2008

मुक्तक माला - १४

चलने वालो को कब कोई रोक पाया है।
बस इतना याद रखो किसने सताया है।
यही चुभन जगाए रखेगी, काली रातों में,
विजय का गीत, सभी ने ऐसे गाया है।

बहुत नाजुक है ये दिल, तोड़ना नहीं।
संग है कोई, उसे राह में छोड़ना नही।
बहुत तकलीफ होती है ऐसे हालातों में,
पकड़ा हुआ हाथ कभी तू छोड़ना नही।

मत समझ गैर जो सताते हैं तुझको यहाँ।
इन की फितरत है,फिर वो जाएगें कहाँ।
खुदा के रहमों करम पर दोनों जिन्दा हैं,
खुदा ने ऐसा ही बनाया है शायद ये जहां।

Saturday, December 20, 2008

मैं प्रतिक्षा कर रहा हूँ


बड़े नाम वालों के
छोटे काम भी
बड़े नजर आते हैं।
इसी लिए हमेशा
छोटे मारे जाते हैं।
तुम भी मुस्कराते हो।
हम भी मुस्कराते हैं।
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जरूरी नही है
तुम्हारा गीत कोई सुनें।
लेकिन सभी गाते हैं।
खुशी,गमी या तन्हाईयां
सभी को सताते हैं।
तुम जरूर गाओं
क्यों कि
पंछी भी गाते हैं।
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यह एक मन की व्यथा है
जो हर बात को शुरू करके
अधूरा छोड़ देता है।
जैसे फूल को
पूरा खिलनें से पहले ही
माली तोड़ लेता है।
ताकी बाजार में उसकी
अच्छी कीमत मिल सके।
माला औ गुलदस्तों मे सजाता है।
हमारा जीवन भी इसी तरह जाता है।
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लेकिन कुछ फूल
ऐसे भी होते हैं।
जो माली की नजर से
बहुत दूर होते हैं।
ऐसे फूल अक्सर
तन्हाईयों में रोते हैं।
क्यूँकि मुर्झा कर मरना
बहुत दुखदाई होता है।
क्यूँकि तब वह सिर्फ
घास-फूँस होता है।
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बहुत भूलना चाहता हूँ
उस के फैले हुए हाथों को।
दुबारा किसी के सामनें
फैलनें ना दूँ।
उस की बोलती आँखों में
जो याचना नजर आती है।
उसे हमेशा के लिए
उस से छीन लूँ।
लेकिन मुझे अपनी बेबसी पर
बहुत गुस्सा आता है।
मैं ऊपर वाले को ताकता हूँ।
पता नही वह कहाँ छुप कर बैठा है।
किस बात पर ऐठा है।
फिर अपनें आप से पूछता हूँ-
"कहीं वह भी मेरी तरह"
"लाचार तो नहीं।"
मेरे पास कोई जवाब नहीं।
यदि आप को कहीं
जवाब मिले तो बताना।
मैं प्रतिक्षा कर रहा हूँ।

Monday, December 15, 2008

चलना होगा तुझे अकेला


चलना होगा तुझे अकेला।

किस का रस्ता देखे मन तू,

अम्बर में छाए हैं घन क्यूँ?

मोर कहीं पर नाचा होगा,

जीवन तेरे संग भी खेला।

चलना होगा तुझे अकेला।

तिल-तिल मरते सपनें तेरे,

पानी पर बनते हैं घेरे।

इन घेरों को तोड़ दे मन तू,

अब तक तूनें कितना झेला।

चलना होगा तुझे अकेला।

दूर गगन में पंछी उड़ता,

दाना-तिनका खानें को।

लगा रहता है आना-जाना,

जीवन जाल है एक झमेला।

चलना होगा तुझे अकेला।

Thursday, December 11, 2008

पीड़ा


कोई दूसरा पीड़ा दे ,
तो महसूस नही होता ।
अपनो की पीड़ा
बहुत तकलीफ देती है।
ऐसा लगता है मेरी हर खुशी
जलती चिता पर लेटी है।

इसी लिए जब भी
कोई अपना पास आता है।
कोई मीठा-सा गीत गाता है।
चाशनी में लिपटे जहरीले बोल
मुझ को सुनाता है।
सब जानते हुए भी
उन्हें भीतर उतार लेता हूँ।
इसी तरह इस अथाह सागर में
अपनी नौका खेता हूँ।

कई बार अपने से ही प्रश्न पूछता हूँ-
’क्या ऐसा सिर्फ मेरे साथ ही होता है?"
फिर चारो ओर
उत्तर सुनने की कोशिश करता हूँ।
किसी के पास कोई जवाब नही होता है।
बस इतना ही महसूस होता है।
यहाँ हर इन्सान
मेरी तरह ही रोता है।

Sunday, December 7, 2008

परजीवी

वह एक परजीवी है।

अंधा और बहरा है,

बोलता बहुत है,

दूसरों की बातों को

तोलता बहुत है।

नए-नए स्वांग रच

मजमा लगाता है।

दूसरों के दुख को

अपना बताता है।

एक मसखरा है

अपनी बातों से वादों से

सब को बहलाता है।

हमारे देश में ऐसा जीव-

नेता कहलाता है।

Thursday, December 4, 2008

शहीदों की पुकार


जो चिराग जलाए तूनें, आज मेरी कब्र पर।
बुझ ना जाए भूल से, ये कर्ज है हर शख्स पर।
वक्त की इस मार से मुझको भुला देना ना तू,
देखना है मौत का, तुझ पर हुआ है क्या असर।

मौत से मेरी तुझे गर, राह मिलती है कोई।
धन्य होऊँगा, जगी जो आत्मा तेरी सोई।
जाग कर सोना नही मेरे वतन के नौजवां,
माफ ना करूँगा तुझको, आँख जो कोई रोई।

पूछना है आज हर नेता से बस येही सवाल।
तेरा बेटा क्यूँ नही लेता है बन्दूके संम्भाल?
गर नही है आग तेरे भीतर वतन परस्ती की,
हाथों में पहन चूड़ी,पाँवों में घुँघरू ले डाल।

Saturday, November 29, 2008

मेरा भारत महान है

अपनी नाकामियों को
आपस में संवेदनाएं प्रकट कर
भूल जाना।
एक दूसरे पर
अरोप-प्रत्यारोप लगा
देश की जनता को भटकाना ।
यह हमारे देश की
सभी सरकारों का काम है।
इसी लिए
"मेरा भारत महान है।"

हमें भविष्य के सपनें देखनें
अच्छे लगते हैं।
इसी लिए हम
वर्तमान में नही जीते।
हर क्षेत्र में सदा
नजर आते हैं रीते।
हमारी यह सोच अब आम है।
इसी लिए
"मेरा भारत महान है।"

सवाल यह नही है कि
आतंकवादी आतंक फैलाते हैं।
सवाल यह है कि
हमें सभी आतंकवादी
धार्मिक क्यूँ नजर आते हैं?
हमें समझना होगा
हमारी इस सोच का
आधार क्या है?
हमारे नेताओं का
व्यापार क्या है?
हमारी सोच को
इस तरह बदलना
किसका काम है।
जानतें हम सभी हैं।
लेकिन कुछ करते नहीं।
इसी लिए
मेरा भारत महान है।

मेरे देशवासीयों
अब तो जागो!
अपने मत कि गोलियों से
ऐसे नेताओं के सीनें को दागो।
पार्टियों के नाम को नहीं,
अच्छे इन्सानों को जिताओ।
इन नालायकों से
अपनें देश को बचाओ।
यदि तुम कर सके
तो यही सबसे बड़ा
तुम्हारा काम है।
तभी तुम कहने के हकदार हो-
"मेरा भारत महान है।"

Tuesday, November 18, 2008

कमजोर आदमी

पुन:आवृति
यह पलकें

सदा भीगी रहती हैं।

कभी धूँए से

कभी आग से,

कभी दर्द से।


अब कब और कैसे सूखेगा पानी?

कब खतम होगी यह कहानी?

"वो" भी इन से मुँह फैर बैठा है।

पता नही इन से क्यों ऐंठा है?

हरिक आदमी अपनी ताकत

इसी पर अजमाता है।

सताए हुए को और सताता है।





आज फिर

एक कहानी याद हो आई?

जो किसी ने थी सुनाई।


अर्जुन ने एक बार

जब वह वन में घूम रहे थे

श्रीकृष्ण के साथ , पूछा था-

"भगवान!आप सताए हुए को क्यों सताते हो?"

"जब कि हमेशा उसे अपना बताते हो।"


कृष्ण बोले-"अभी बताता हूँ.."

"पहले मेरे बैठनें को एक ईट ले आओ।"

अर्जुन तुरन्त चल दिया।


लेकिन बहुत देर बाद ईंट ले कर लौटा।

कृष्ण ने उसे टोका
और पूछा-"इतनी देर क्यों लगा दी?"


"पास में ही तो दो कूँएं थे वही से क्यों नही उखाड़ ली?"

अर्जुन बोला-"प्रभू! वह टूटे नही थे,ईट कैसे निकालता?"

कृष्ण बोले-"मै भी तो इसी तरह सॄष्टी को हूँ संम्भालता।"



टूटे को सभी और तोड़ते हैं।

मजबूत के साथ अपने को जोड़ते हैं।

ऐसे में,

कैसे कमजोर आदमी को

संम्बल ,सहारा मिलेगा।

क्या उस का चहरा भी

कभी खिलेगा?

Thursday, November 13, 2008

गुरू नानक देव जी के पावन जन्मदिवस पर

गुरू नानक देव जी के पावन जन्मदिवस पर जो की १३ नवम्बर२००८ को
मनाया जा रहा है।आप सब को बहुत-बहुत बधाई।


गुरू नानक देव जी का जन्म १४६९ को १५ अप्रेल को पंजाब के तलवंडी नामक एक गाँव में हुआ था। जो अब पाकिस्तान में है।उन का जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ था।उन के पिता का नाम मेहता कालू था और माता का नाम माँ तृपता जी था। उन की एक बड़ी बहन थी जिसका नाम बीबी नानकी जी था।

वह बचपन से ही बहुत मेधावी व शांत स्वाभाव के थे। उन में बचपन से ही प्रभू के प्रति प्रेम व समर्पण की भावना थी। कहा जाता है कि वह जब पैदा हुए थे रोने की बजाए हँसते हुए पैदा हुए थे। उन के जीवन में अनेक ऐसी घट्नाएं हुई जो उन के अवतारी पुरूष होनें का आभास कराती थी।

जब वह कुछ बड़े हुए तो उन्हें विधा प्राप्ती के लिए भेजा गया। अक्षरज्ञान प्राप्ती के बाद,उन्होनें अपनें गुरू से कहा कि "आप अपनें शिष्यों को सच्ची व नेक बातें बताईए...और साथ ही प्रभू के बारे में बताएं।’यह सुन उन का गूरू उन से बहुत प्रभावी हुआ। वहाँ उन्होनें अपनें गुरू को बहुत -सी प्रभु के बारे में गहन बातें भी बताई।

नौ साल की उमर में उन्हें हिन्दू परिवार में जन्म के अनुसार जनेऊं धारण करनें के लिए प्रेरित किया गया। लेकिन जब उन्हें जनेऊं पहनानें का समय आया तो उन्होनें जनेऊं पहननें से साफ इंनकार कर दिया। इस पर जनेऊं धारण संस्कार करवानें वाले पंडित ने पूछा कि आप जनेऊं पहननें से क्यों इंनकार कर रहे हैं?तब उन्होनों कहा कि इस जनेऊं के धागॊं को बाँधनें से क्या मेरे भीतर सत्य,संतोष,अहिंसा...आ जाएगी? यह धाँगा तो पुराना होनें पर टूट जाएगा या घिस जाएगा। तब क्या होगा? इस से क्या मेरा मन अपने बस में रहेगा और मै बुराईयों से दूर रहूँगा?...यदि आप को मुझे जनेऊं पहनाना है तो ऐसा जनेऊं पहनाईएं जो कभी भी ना टूटे और ना ही कभी पुराना पड़े। यह सुन सभी उन के तर्क पर हेरान हो गए।

उन के बचपन की एक घटना है ।एक दिन गर्मीयों की तपती दोपहरी को गाँयें चरा रहे थे तो वहाँ बड़ा-सा छायादार पेड़ दिखा ,जिसे देख वह कुछ देर सुस्तानें के लिए उस के नीचें लेट गए। लेकिन उन्हें वहाँ लेटते ही नींद आ गई और वह गहरी नीदं में सो गए। उन्हें यह याद ना रहा कि वे यहाँ गाँयें चरानें आएं हैं। उन की गायों ने पास के एक खेत को ही चर डाला। जब शाम को उन की नीदं टूटी तो वह अपनी गायॊं को लेकर वापिस घर लौट गए।


इस घटना को गाँव के ही एक निवासी रायबुलार ने देखा और जाकर उस खेत के मालिक को खबर दी कि नानक की गायों ने तुम्हारा सारा खॆत चर लिआ है। यह सुन कर उस खेत के मालिक ने जाकर इस बात की शिकायत नानक के पिता मेहता कालू जी को दी।यह सुन कर वह बहुत गुस्सा हुए। उन्होनें नानक को बुलाया और डाँटा। लेकिन नानक देव चुपचाप उन की बातें सुनते रहे। इस के बाद नानक के पिता नें खेत के मालिक से कहा कि आप अपना कोई आदमी खेत पर भेजों ताकी पता चल सके कि गायों ने कितना नुकसान किया है और तुम्हें कितना हर्जाना देना है। इस पर खेत के मालिक ने नौकर के साथ अपना एक विश्वसनीय आदमी उस के साथ भेजा। लेकिन वहाँ जाकर देखा कि खेत में कुछ भी नुकसान नही हुआ था। जब उन्होनें लौट कर यह बात बताई तो शिकायत कर्ता बहुत हेरान हुए।इस के बाद रायबुलार को बुलवा कर उस से पूछा कि तुमनें झूठ क्यों बोला। इस पर उसनें कहा कि मैनें झूठ नही बोला...लेकिन नानक की प्रभू भगती के प्रभाव से ऐसा हो गया होगा। कि खेत पहले जैसे हो गए। इसी तरह की अनेक घट्नाएं उन के जीवन में घटित हुई ।

जब उन के पिता ने देखा की नानक सदा प्रभू भक्ति में ही लगे रहते हैं तो उन्होनें उन्हें बीस रूपय देकर सच्चा सौदा कर धन कमानें के लिए भेजा। उन के संग उन का घरेलू नौकर भाई मरदाना भी उन के साथ था। उस समय व्यापार के लिए जाते हुए उन्हें रास्ते में,कई दिनों से भूखे साधु मिलें। उन साधुओं को देख कर उन का ह्रदय बहुत दुखी हुआ। तब उन्होनें अपने साथ आए नौकर मरदानें से कहा- पिता ने कहा था कि सच्चा सौदा करना। इन भूखे साधूओं को भोजन करानें से बड़ा सच्चा सौदा और क्या हो सकता है? यह कह कर उन्होनें सारे रुपये उन भूखे साधुओं के लिए भोजन पर खर्च कर दिए और घर लौट आए। उन्हें वापिस लौट कर आनें पर उन के पिता ने पूछा-"तुम व्यापार करने गए थे। कौन-सा व्यापार किया?"तब उन्होनें कहा आप ने सच्चा सौदा करनें को कहा था। इस से सच्चा सौदा कर के आया हूँ।" उन्होनें पूछा कितना लाभ कमाया? इस पर सारी बात उन्होनें अपने पिता को बताई।वह बात सुन कर उन के पिता ने उन्हें एक थप्पड़ जड़ दिया। इस पर उन की बड़ी बहन नानकी नें कहा की उन्हें ना मारें..क्यूँ कि उन की बहन उन्हें अवतारी बालक मानती थी।

जब उन के पिता ने देखा कि यह अभी भी अपनी प्रभू भक्ति में ही लगा रहता है , तो उन्होने उनका विवाह करा दिया। जिस से उन्हें दो संतानें प्राप्त हुई। जिन के नाम लक्ष्मी चंद और श्रीचंद जी थे।


सिख धर्म की नींव गुरू नानक देव जी ने ही रखी थी। वह सिखों के पहले गुरू थे।उन की लिखी रचनाएं "गुरू ग्रंथ साहिब" में दर्ज हैं।उन्होनें अपने जीवन काल में चार बड़ी यात्राएं की। यह यात्राएं उन्होनें अपनें विचारॊं को जन मानस तक पहुँचानें के लिए और उस समय लोगों में फैलें अंधविश्वास और कुरीतियों को दूर करनें के लिए की थी। आज ५००सालो से भी ज्यादा हो चुके हैं, लेकिन उन के कहे उपदेश आज भी सार्थक हैं और जन कल्याण करनें वाले हैं।उस समय जब प्राकृतिक रहस्यों को जाननें का कोई साधन भी नही था। उन्होनें उस समय अपनी दिव्य दृष्टि से देख कर जो बातें कहीं हैं वह आज भी विज्ञान की कसौटी पर एक दम खरी उतरती हैं। "जपुजी साहिब" उन की प्रथम बाणी है। जिस में प्रभू के स्वरूप को बताते हुए,प्राकृति के अनेक रहस्यॊं को भी बताया गया है। "गुरु ग्रंथ साहिब" में आप के मन में उठनें वाले हरेक प्रश्न का उत्तर मिल जाता है। चाहे वह परमात्मा प्राप्ती से संबधित हो या प्राकृतिक रहस्यों से ।

उन्होनें २२ सितम्बर १९३९ को ६९ वर्ष की आयू में अपनी भौतिक देह का त्याग किया।

Sunday, November 9, 2008

खोया हुआ घर


कब चाहा है हमनें कभी

सभी का सुख

झाँक कर देखों जरा भीतर,

दूसरे का सुख तभी तक चाहते हैं

गर छुपा हो सुख अपना वहाँ पर।


पाया जब मैनें तो मेहनत यह मेरी

खो गया कुछ तो समझा लूटा किसी ने।

व्यर्थ का इक जाल बुन बैठा हूँ यारों-

झूठ को, अपना सच मानने पर।

दोष अक्सर दूसरों को दे रहा हूँ,

भय लगा रहता है ना देखूँ आईना पर।


देख वाहनों को पड़ोसी के घरों में,

हमको भी वाहन चाहिए

भले ना हो, जरूरत।

मन मेरा मुझको कहाँ ले जा रहा है?

नित नयी अभिलाषाओं का तुफान ला कर।


जिन्दगी अपनी ये क्या हो गई है?

आज अपनी हँसी भी खो गई है।

दोड़ना बस दोड़ते रहना यहाँ पर,

मंजिले सब की कहाँ पर खो गई है।

थक चुका , फिर भी चलता जा रहा हूँ

ढूढं पाऊँगा क्या मैं खोया हुआ घर।


कब चाहा है हमनें कभी

सभी का सुख

झाँक कर देखों जरा भीतर,

दूसरे का सुख तभी तक चाहते हैं

गर छुपा हो सुख अपना वहाँ पर।




Thursday, October 30, 2008

उम्मीद

मेरे मन में कई बार विचार आता है कि क्या हम इस जिन्दगी को जी रहे हैं.......या फिर ये जीवन हम को जी रहा है।हम सपने सजाते हैं और जीवन भर उन्हें पूरा करनें की कोशिश में लगे रहते हैं।यदि कभी कोई एक सपना सोभाग्य से कहीं पूरा हो भी जाता है तो वह अपनें साथ बीसीयों नए सपनें लेकर हमारे सामनें खड़ा हो जाता है और हम फिर उन को पूरा करनें की उधेड़्बुन में लग जाते हैं।बस सारा जीवन इसी भाग -दोड़ में चला जाता है।आखिर में जो हमारे हाथ लगता है ,वह हमे संतुष्ट नही कर पाता।हमें संतोष प्रदान नही कर पाता।हमें लगता है कि हम जो कुछ करते रहें हैं वह नाकाफी था।इतना सब कुछ होते हुए भी हम उम्मीद नहीं छोड़ते।आखिर ऐसा क्या है जो हमें सदा चलते रहनें की प्रेरणा देता रहता है।जब कि हम उसके बारे में कुछ भी तो नही जानते।कोई अज्ञात शक्ति हमें जीनें की ओर ले जाती है।या कहीं ऐसा तो नही कि हमारी यह सारी भागम भाग का कारण मौत का भय है?....


मौत दुल्हा बन इक दिन आएगा।

जिन्दगी दुल्हन को संग ले जाएगा।

मन सजाता बाँवरा सपनें यहाँ,

परमजीत इक दिन बहुत पछताएगा।


हो ना सकेगें, सपनें, तेरे सच कभी।

जानता है, बिखरेगें, सब ही यहीं।

ठहरना इसको सुहाता है कहाँ,

पड़नें लगी है इसको, कम, अब जमीं।


वक्त से पहले मगर मन मर नहीं।

इक दिन अपने,यार से मिल पाएगा।

उम्मीद दिल में ले के,ये चलते रहो,

परमजीत पहुँच इक दिन जाएगा।

Thursday, October 16, 2008

धर्म परिवर्तन से बचने के उपाय


इस धर्म परिवतन को लेकर ना जानें कितने झगड़े व खून खराबा आए दिन होता रहता है।आज यह साबित करना मुश्किल होता जा रहा है कि लोग अपनी मर्जी से धर्म परिवर्तन करते हैं या फिर किसी लालच या भय के कारण वह इस ओर जाते हैं।हमारा इतिहास बताता है कि हिन्दू धर्म पर यह हमला आज से नही बहुत पुरानें समय से हो रहा है।जब देश मे मुगल राज्य की स्थापना हुई थी उस समय भी कई ऐसे शासक थे जो हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया करते थे।इतिहास इस का गवाह है।

लेकिन उस के बाद ईसाईयों ने इस काम को संभाल लिआ। आज जो धर्म परिवर्तन हो रहे हैं, वह स्वैछा से बहुत कम हैं। लेकिन गरीबी व अपमानित जीवन से मुक्ति पानें के लिए ज्यादा हो रहे हैं।इस के पीछे लालच व सुविधाओं का लोभ रूपी दाना डाला जा रहा है।जिस में गरीब हिन्दु आसानी में फाँसा जा रहा है। समझ नही आता कि इस तरह धरम परिवर्तन कराने मे उन्हें क्या फायदा होता है? यदि वह बिना धर्म परिवर्तन कराए ही उन को वही सुविधाएं प्रदान कर दे और धर्म परिवर्तन के लिए कोई दबाव ना डाले तो क्या इस तरह कार्य या सेवा करनें से उन के ईसा मसीह उन से नाराज हो जाएगें ?

यहाँ स्पस्ट करना चाहुँगा कि यह लेख किसी धर्म की निंदा करने के लिए नही लिखा जा रहा।इसे लिखने का कारण मात्र इतना है कि जो अपने धर्म के अनुयायीओं की सख्या बढाने के चक्कर में दुसरों को लालच या भय के द्वारा भ्रष्ट करते हैं, उन्हें रोका जा सके। उन के द्वारा किए गए ऐसे कार्य कुछ लोगो को उकसानें का कारण बन जाते हैं जिस से देश में रक्तपात व आगजनी की शर्मनाक घटनाएं होती रहती हैं।इन सभी को रोका जा सके।

लेकिन इस धर्म परिवर्तन के पीछे मात्र ईसाई ही एक कारण नही हैं।इस के पीछे हमारी दलितो और गरीबों के प्रति हमारी मानसिकता भी एक कारण है। आज भी दलितो को कोई पास नही बैठनें देता।भले ही शहरों में यह सब कुछ नजर नही आता ,लेकिन गाँवों में यह आज भी हर जगह दिखाई पड़ता है।आप किसी भी गाँव में चले जाए। वही आप को दलितों को कदम कदम पर अपमान का घूट पीते देखा जा सकता है।ऊची जातियो द्वारा दिया गया यही अपमान उन्हें धर्म परिवर्तन की ओर ले जा रहा है।लोगो का ऐसा व्यवाहर भी इस धर्म परिवर्तन का एक कारण हो सकता है। इस लिए यदि हमें इस धर्म परिवर्तन को रोकना है तो सब से पहले इस निम्न वर्ग कहे जानें वालो के मन से छोटेपन का एहसास हटाना होगा।उन्हें अपने साथ बराबरी का दर्जा देना होगा। उसे कदम कदम पर अपमानित होनें के कारणो को दूर करना होगा।इस के लिए ईसाईयो के घर जलाने की नही, किसी को मारने की नही है। बल्कि अपने भीतर बनी ऊँच-नीच की दिवार गिरानी होगी,अपने भीतर के इन कुसंस्कारों को जलाना होगा। यदि हम उन दलित्व पिछड़े कहे जानें वालों को बराबरी का हक दे देगें ,तो फिर कोई लालच उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए, उकसाने मे सफल नही हो सकता।लेकिन क्या शोर मचानें वाले लोग इस कार्य को व्यवाहरिक रूप में ला सकते हैं? यदि ला सकते हैं तो बहुत हद तक इस धर्म परिवर्तन की समस्या से बचने का समाधान हो जाएगा।

यदि फिर भी धर्म परिवर्तन की समस्या का समाधान नही होता तो आप को हाल में ही घटी एक घटना के बारे में बताता हूँ जो मैनें किसी अपनें खास से सुनी थी।यह घटना बिल्कुल सच्ची है।

कुछ समय पहले एक पढा लिखा सिख नौजवान दिल्ली नौकरी की तलाश में आया था।लेकिन काफि कोशिश करनें के बाद भी उसे नौकरी नही मिल पा रही थी।इसी तलाश में उस के फाँके काटने की नौबत आ गई थी।लेकिन इसी बीच संयोग से उन का संम्पर्क एक विशेष संप्रदाय के विशिष्ट व्यक्ति से हो गया।खाली होनें के कारण वह सिख नौजवान उन के साथ उन के धार्मिक सस्थान में भी आने जानें लगा\ उन महाश्य को मालुम था कि यह एक जरूरत मंद है सो उसे अपनें धर्म में लानें के लिए उस पर जोर डालने लगे।उस नौजवान ने अपनी सारी समस्या उन के सामने रख दी कि पैसा धेला मेरे व मेरे घर वालों के पास नही है।नौकरी मिल नही रही।बिजनैस करने के धन नही है।शादी की उमर भी निकलती जा रही है।यदि आप मेरी मदद करें तो में आप के धर्म को अपना लूँगा।बस फिर क्या था। कुछ ही दिनों के बाद उसकी शादी हो गई।दिल्ली मे ही एक घर अच्छी खासी सिक्योरटी दे कर किराए पर एक घर दिला दिया गया।नौकरी तो नही मिली लेकिन उसे नया थ्रीव्हीलर दिला दिया गया।वह सिख धर्म बदल कर कुछ साल तक दिल्ली मे ही रहा।लेकिन एक दिन अचानक सब कुछ बेच कर,घर के लिए दी गई सिक्योरटी ले,,अपनी पत्नी को लेकर वापिस अपने गाँव लौट गया।वहाँ पहुच कर उस ने पुन: स्वयं व अपनी पत्नी को भी सिख धर्म मे ले आया।आज वह उसी धन से छोटा-सा बिजनैस कर रहा है और मजे से रह रहा है।जिन महाशय ने उन का धर्म परिवर्तन कराया था वे आज अपना सिर धुन रहे हैं।मैं सोचता हूँ कि यदि ऐसा ही रास्ता अपना कर इन लालच देकर धर्म परिवतन करवाने वालों को सबक सिखाया जाए तो वह भी आगे से किसी को लालच देकर धर्म परिवर्तन करवाने से शर्मसार होगें।

Saturday, October 11, 2008

मुक्तक माला-१३

'myspace


बहुत दम है तुम्हारी बात में हम मान लेते हैं।
तुम्हारी इस अदा पर ही तो अपनी जान देते हैं।
बहुत मगरूर हो लेकिन गजब की चाल है तेरी,
मंजिल पर पहुँचते हैं वही , जो ठान लेते हैं।

******

हम मंजिल की तलाश में बहुत भटके हैं।
इस जीवन में सुख-दुख के बहुत झटके हैं।
इन से जो घबरा के रस्ते बदले अपने,
उन्हीं के रास्ते चौराहे पर आकर अटके हैं।

**********



Monday, October 6, 2008

डरते क्य़ूँ हो........


इश्क की राह पे चलनें से, डरते क्यूँ हो।
बैठे इंतजार घर पे तुम, करते क्यूँ हो।

दूर से तुम को कोई, दे रहा, सदाएं है,
अनसुना हर घड़ी इसको करते क्यूँ हो।

माना इश्क में हर हाल में रोना होगा,
रोना किस्मत है तेरी तो, डरते क्यूँ हो।

हरिक आशिक को मंजिलें नहीं मिलती,
मौत आनें से पहले ,तुम मरते क्यूँ हो।

खोया-पाया, हिसाब इस का, क्या रखें,
खाली आया था,फिकर, करते क्यूँ हो।

गर इंतजार उसका, नहीं तुम से होता है,
परमजीत जानकर आहें! भरते क्यूँ हो।

इश्क की राह पे चलनें से, डरते क्यूँ हो।
बैठे इंतजार घर पे तुम, करते क्यूँ हो।



Thursday, October 2, 2008

क्षणिकाएं

आज २ अक्टुबर है।बापू का जन्म दिन है।आप सब को इस कि बधाई।

बापू पर कुछ लिखना चाहता था ।लेकिन आज-कल के हालात देख कर अपनें मन में उठती पीड़ा को दबा ना सका सो कुछ ऐसा लिख दिया जो आज सभी देशवासियों को आहत कर रहा है।
यहाँ यह कहना उचित समझता हूँ कि मैं किसी के सिद्धांत गलत नहीं ठहरा रहा।यह सिद्धांत उस समय तो बहुत उपयोगी थे ,लेकिन आज इन का प्रभाव शायद ही कारगर हो सकेगा।इसी लिए कुछ ऐसी बातें लिख दी हैं....क्षमायाचना के साथ प्रस्तुत हैं कुछ क्षणिकाएं-



बापू!
तुम अकेले ना थे।
तुम्हारे कहनें पर कितनों ने
अपने को मिटाया।
लेकिन उन्हें
कौन याद करता है?
उन के चरणों में कोई
दो फूल धरता है?
शायद जीव का स्वाभाव है।
जो सामनें दिखता है
उसी को सलाम करते हैं।
उन्हें कौन याद करे
जो नींव की ईट बन मरते हैं।


बापू!
आज राजनेता
तुम्हारे नाम और सिद्धातों का सहारा ले
अपने को चमकाते हैं।
जिस देश के लिए
आपने गोली खाई।
उसी देश के देशवासीयों को
ये शांती से खाते हैं।


बापू!
आज आतंकवादीयों पर
आप का अहिंसावादी सिद्धांत नही चलेगा।
यदि इसी पर चलते रहे
वह दिनों दिन और फलेगा।
यदि आज एक गाल पर थपड़ खा कर
दुसरा गाल आगे करेगें।
तो दुसरे गाल पर भी थपड़ पड़ेगें।

Friday, September 26, 2008

आज का आदमी

धर्म से दूर होता जा रहा है आदमी।
इस लिए आदमी को, खा रहा है आदमी।
भेजा जिसनें तुझ को यहाँ ए- आदमी,
उसी को भूलता क्यूँ जा रहा है आदमी।

आपसी होड़ में आगे रहनें की चाह में,
कुचलता जा रहा है पैरों तले यह आदमी।
अपने-पराय का नही कोई भेद है,
अपनों को निगलता जा रहा है आदमी।

धन की भूख ने भुलाए रिश्ते सभी,

हर जगह सेंध लगाता, आदमी।

ना जानें कहाँ खॊई, इन्सानियत,

जानवर से भी बदतर हुआ, आदमी ।


धर्म से दूर होता जा रहा है, आदमी।

आदमी को, खा रहा है आदमी

Saturday, September 20, 2008

नजरिया

मेरा सच
तुम्हारा भी सच हो
यह हमेशा जरूरी तो नहीं होता।
रोना बच्चों का स्वाभाव है।
लेकिन
सिर्फ भूख के लिए -
हर बच्चा तो नही रोता।

Tuesday, September 16, 2008

यही सब का लेखा है

सहलाने के बहानें जब कोई जख्म कुरेदे।


इंसानियत के नाम पर, कोई शख्स है खेले।


निभाए रस्म बुझाने की, लगा कर पहले आग,


आज दिख रहे हैं यहाँ, लगे ऐसे ही मेले।



चलना सम्भल के दुनिया के रंग निराले।


हर साधू ने शैतान, यहाँ अपने हैं पाले।


धोखा ना खाना देख चेहरा इंसान का यहाँ,


जानवर बनने लगे पहन, आदमी की खालें।



हो सकता है कभी तुझे, मिलाहो कोई अपना।


उसको भुला दे यार, समझ मीठा-सा सपना।


जब तलक है मतलब, तेरे साथ चलेगा,


मतलब जो हुआ पूरा, राह पकड़ेगा अपना।




हमनें तो हरिक को, रोते यहाँ देखा है।


मुस्कराते चहरों के पीछे, दर्द को देखा है।


इक अधूरापन लिए सब जीते-मरते हैं,


कोई माने या ना मानें, यही सबका लेखा है।

Thursday, September 11, 2008

बेचारा !

यह एक बहुत पुरानी रचना है जो कभी बचपन में लिखी थी।वही आज यहाँ लिख रहा हूँ।वास्तव में यह वह पहली रचना है जो कभी किसी छोटी-सी पत्रिका में प्रका्शित हुई थी और जिस पत्रिका में प्रकाशित हुई थी वह शायद साल दो साल बाद बंद भी हो गई थी।लेकिन फिर भी इस के प्रकाशित होनें के बाद ही मुझे कविताएं लिखने का शोक पैदा हुआ था। जो आज तक बरकरार है।


ये धरती के छंद

जिनकी गति है मंद

चलते हैं आहिस्ते-आहिस्ते

मुख में गीत गाते

गम के हो या खुशी के

बस एक पंक्ति दोहराते

अंधे विवेक का मानव

अंधियारों के डिम्ब जाल में

उतर गया है या

फँस गया

बेचारा!

Friday, September 5, 2008

"मन नंगा तो हर नारी से पंगा " लेख पर आई कुछ टिप्पणीयों पर विचार

शास्त्री जी के लेख से प्रभावित हो कर जो लेख लिखा मन नंगा तो हर नारी से पंगा ,उस पर कुछ टिप्पणीयां आई हैं। उन को पढ़ कर कुछ नए विचार मन में उठने लगे हैं।यहाँ एक बात स्पस्ट करना चाहूँगा कि यहाँ अपनें विचार प्रकट करनें का अभिप्राय यह नही है कि किसी की सोच से सहमति या असहमति जताई जाए।बल्कि हम तो चाहते हैं कि इस का कोई हल निकले।हमारी सोच को कोई नई दिशा मिले।जिस से नर-नारी के संबधों मे बड़ती दूरी को कुछ कम किया जा सके।शास्त्री जी ने सही लिखा है इस पर खुल कर चर्चा होनी चाहिए।
ई-गुरु राजीव जी की टिप्पणी पढ कर लगा कि शायद उन की बात काफी हद तक सही है।क्यूँ कि नंगा पन तभी नजर आ सकता है जब कोई उसे दिखाना चाहता है। इस टिप्पणी को पढ कर एक पुरानी याद ताजा हो आई। बात तब की है जब हम एक सरकारी कालोनी में रहते थे।हमारे घर से कुछ घर छोड़ कर एक पंडित जी का घर था।उन की चार बेटियां थी।एक का तो विवाह हो गया था,लेकिन बाकी की तीन वहीं रहती थी।ऐसी स्थिति में जैसा अक्सर होता है।उन के घर के आस-पास अक्सर लड़के किसी ना किसी बहानें से मडराते रहते थे।इस लिए उन लड़कियों से छेड़छाड़ का सिलसिला अक्सर चलता रहता था।कालोनी के लड़के जब भी मौका पाते थे उन मे से बड़ी व छोटी पर अक्सर छीटाँकशी करते रहते थे।लेकिन उन्हीं की बीच वाली बहन को, जोइक उन दोनों से ज्यादा सुन्दर थी।उस को कोई भी नही छेड़ता था।जब भी कोई लड़का उसे सामनें पाता था तो एक्दम चुप हो जाता था या फिर सिर झुका कर दूसरे रास्ते खिसक लेता था।काफि समय तक तो उन लड़को के इस व्यवाहर का कारण मुझे समझ ही नही आया।जब मैनें इस बारे में लड़को से पूछा तो उन्होंनें कहा- यह बहुत शरीफ लड़की है।यह जब भी हमारी ओर देखती है तो हमे ऐसा आभास होता है कि जैसे हमारी बहन देख रही है।इसी लिए उसे छेड़नें की हिम्मत किसी को नही पड़ती।
उस समय सोचनें को मजबूर हो गया कि कहीं ऐसा तो नही है कि हमारे मन पर दूसरों के मन व भावों का कोई चुंबकीय प्रभाव पड़ता है। जो हमें यह आभास कराता है कि फंला लड़्की दूसरों को आकृषित करनें के लिए ऐसे वस्त्र पहनती है या मात्र अपनी खुशी के लिए पहनती है।यहाँ यह बात कहना चाहूँगा कि यह बात नर-नारी दोनों पर समान रूप से लागू होती है।इस विषय पर खोज होनी चाहिए।
दूसरी टिप्पणी दिनेशराय द्विवेदी जी ने की है। उन से कहना चाहूँगा कि मैनें यह नही कहा कि शास्त्री जी ने जो कहा वह गलत है।बल्कि उन का लेख पढ़ कर ही मुझे इस विषय पर कुछ कहनें का मौका मिला है
आप ने सही कहा कि "लोगों को विचार करने दीजिए इस विषय पर। कोई निष्कर्ष शायद निकट भविष्य मे नहीं निकल पाए। लेकिन इस विचार-विमर्श से मन में छुपे विचार तो सामने आएँगे। शायद ये कोई रास्ता कभी दिखा सकें।" मै आप से पूरी तरह सहमत हूँ।
तीसरी टिप्पणी सतीश सक्सेना जी की है।उन्होनें कहा है कि-"हकीक़त में हमारा नंगपन, लोलुपता इस प्रकार के लेखों से बाहर आ रही है , कई ब्लाग ऐसे चल रहे हैं जिनमे स्त्री प्रसंग और संसर्ग चर्चा के बहाने ढूंढे जा रहे हैं ! और कड़वी सच्चाई यह भी है की ऐसे लेख पढने वालों की भीड़ कम नहीं है ! हिन्दी ब्लाग्स अभी शैशव अवस्था में है, लोग लिखते समय यह नही सोच पा रहे की लेखन का अर्थ क्या है , यह नही देख पा रहे की उनके इस प्रकार के लेखन के साथ साथ उनका चरित्र भी अमर हो जायेगा ! और उनके इसी चरित्र के साथ, उनके परिवार के संस्कार जुडेंगे ! जिसमें उतना ही स्थान महिलाओं और लड़कियों का है जितना पुरुषों का ! एक दिन यह दंभ और चरित्र सारे घर का चरित्र बन जाएगा ! ईश्वर सद्बुद्धि दे !"
मुझे लगता है कि सतीश जी इस विषय से भागना चाहते हैं।लेकिन शायद वह यह नही जानते कि जब हम चलते हैं तो रास्तों में पहाड़,नदीया, खाईयां सभी से हमें सामना करना ही पड़ता है। ऐसे मे अपना रास्ता बदलते रहें तो हम कहीं भी नही पहुँच पाएगें।
सभी टिप्पणी करने वालों का धन्यवाद।

Wednesday, September 3, 2008

मन नंगा तो हर नारी से पंगा

सदा से पढते आ रहें हैं कि जब भी कोई महार्षि तप करने बैठते थे तो कोई ना कोई अप्सरा आ कर उन महात्मा महा मुनि का तप भंग करने के लिए नृत्य द्वारा चलाए गए कामुक कामबाणों से उनके तप को भंग कर देती थी।कहते हैं तब वह तपस्वी उस अप्सरा को श्राप दे दिया करते थे।इन बातों को पढ़ पढ़ कर आज पुरूष भी ऐसी सोच रखने लगे हैं।क्यूँ कि आज ही मैने एक लेख पढा था। आपने भी जरूर पढ़ा होगा नारीवादी महिलाएं ? आज इसे पढ कर मुझे पौराणिक कथाएं याद हो आई। लगता है पुरूषों की सोच आज भी वही है जो तब हुआ करती थी। यह बात सभी पर लागू नही होती, बहुतों ने समय के साथ-साथ अपनी सोच को भी बदला है।लेकिन फिर भी अधिकतर अपनी सोच को नही बदल पाए हैं। हम मे से अधिकतर पुरूष निष्पक्षता से विचार नही कर पाते हैं।इसी लिए हमे हमेशा दूसरों में दोष देखनें की आदत हो जाती है। वैसे भी मानव स्वाभाव है कि वह दूसरो की कमजोरियों को जल्दी पकड़ लेता है लेकिन अपनी कमजोरिया उसे नजर नही आती। यह बात दोनों पर लागू होती है। यदि आप किसी नारी को अर्धनग्न देख कर कामातुर हो जाते हैं तो इस में उस नारी का क्या दोष है? हमारे अंदर नग्नता का प्रभाव तभी पड़ता है जब हमारी सोच ऐसी होती है। लेकिन यहाँ मेरे मन में एक सवाल उठ रहा है कि आखिर नारीयां ऐसे वस्त्र क्यूँ पहनती हैं? इस प्रश्न का उत्तर नारीयां ही दे सकती हैं। बहुत पहले किसी काजी साहब ने शायद किसी चैनल पर कहा था की यदि गोश्त को खुला छोड़ दिया जाए तो बिल्लीयां तो उस पर झपटेगी। उस समय भी मैं काजी साहब से यह पूछना चाहता था कि आखिर बिल्लियां इतनी भूखी क्यों होती है कि उन्हें जहाँ भी गोश्त दिखता है वह उस पर झपट पड़ती हैं? क्या उनका पेट कभी भरा हुआ नही होता?

कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारा जन्म सैक्स के कारण से होता है इसी लिए हम इसे कभी छोड़ नही पाते या यूँ कहूँ-नियंत्रण नही रख पाते? क्या इसी कारण नर में यह कामुकता स्वाभाविक रूप से सदा मौजूद रहती है। ्मैनें कही पढ़ा था कि नारीयों की कामुकता तो माँ बननें के बाद विसर्जित हो जाती है ।लेकिन पुरुषों को यह सोभाग्य प्राप्त नही हो सकता।कही इसी कारण से तो पुरूष अपनी कामुकता को नियंत्रण रखनें में असमर्थ होते हैं? शायद यही कारण होगा ऐसा मुझे लगता है।आप इस विषय पर क्या सोचते हैं मैं नही जानता। यहाँ मैनें वही लिखा है जो मुझे सही लगा।हो सकता है मेरी सोच भी गलत हो......लेकिन आज हम सभी जिस दिशा में बढ़ रहे हैं। वहाँ हमें उन कुछ पुरूषों की मानसिकता को बदलनें के लिए कुछ तो करना होगा। वर्ना आनें वाले समय में समाजिक मुल्य एक कोड़ी का भी नही रहेगा।

Tuesday, September 2, 2008

उन्हें अभी नींद से मत उठाओ

हे बाढ़!
तुम उन के लिए कितनी सुन्दर हो,
जिन्हें तेरे आनें से,
राहत देनें के नाम पर,
अपनें घर भरनें के मौके मिलते हैं।
उन के लिए कितनी बुरी हो,
जिन्हें राहत के नाम पर धोखें मिलते हैं।
तुम इसी तरह आओ
इस देश को बहाओ
कुर्सियों पर बैठे हैं मरे हुए लोग।
उन्हें अभी नींद से मत उठाओ।
उन की नीदं तो तभी टूटेगी
जब राहत कोष से,
राहत की मोटी रकम उन के घर पहुँचेगी।

Tuesday, August 5, 2008

कामाग्नी

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यह समय हरेक इंसान के जीवन में आता है, जब यह कामाग्नी इन्सान के भीतर एक चिंगारी बन कर फूटती है और फिर छोटे-छोटे हवा के थपेड़े उसे धीरे-धीरे इतना भड़का देते हैं कि इस आग के लपेटे में जो भी फँसता है...वह इस आग में जल कर भस्म हुए बिना नही बचता।भले ही किसी के जीवन में यह अवसर सिर्फ एक बार ही आए।पता नही कोई इससे बचा भी है या नही?लेकिन जीवन की इस सच्चाई को कैसे झुठलाया जा सकता है....शायद यह कोई नही जानता।इसी सोच नें इस कविता को जन्म दिया है......


अरे मन !
क्यूँ भटकाता है?
पता नही-
तू मेरा मालिक है या मैं?
लेकिन हरिक स्वयं को बताता है।

ऐसा क्यूँ कर होता है-
हर नव यौवना बराबर की लगती है।
दो पत्थरों के आपस में छूते ही
आग-सी जलती है?

शायद
मेरे भीतर कुछ गलत है
जो मुझ को भटकाता है।
लेकिन उस गलत को
कौन ढूँढ पाता है?

पता नही हजारों हजार बार,
शायद जन्म जन्मान्तरों से,
चलते-चलते अनायास
इंसान गिर जाता है।
होश में आनें के बाद,
अपनें को गलियाता है।

लेकिन फिर भी,
सुन्दरता के भीतर
अक्सर ढूंढ लेता है तुम्हें
और स्वयं को,
जल रही कामाग्नी के बीच
पंतगा बन फड़फड़ते हुए।

पंतगा पहले दिन
लौं को देख मचलता है।
दूसरे दिन कुछ करीब आता है।
तीसरे दिन लौं पर मडराता है
और चौथे दिन .........
उसी में समा जाता है।

जानता था इस में जले बिना
ना जान पाएगा।
इस जाननें की अभिलाषा में,
स्वयं को गँवाएगा।

नही जानता-
क्या लौ भी वही महसूस करती है....
जो पंतगा करता है।
या हर दीया....
पंतगे के लिए जलता है।

अक्सर
इसी सोच-विचार में,
यह मन अटक जाता है।

अरे मन !
क्यूँ भटकाता है?
पता नही-
तू मेरा मालिक है या मैं?
लेकिन हरिक स्वयं को बताता है।

Friday, August 1, 2008

चलो चाँद की ओर

विज्ञानिकों ने कहा है कि चाँद पर पानी हो सकता है। यह खबर स्च्ची है या नही कुछ पता नही लेकिन यदि चाँद पर सच में ही पानी मिल जाता है तो हमारे वैज्ञानिक वहाँ पहुँच कर क्या काम करेगें। इसी पर कुछ प्रकाश डाला है। क्यूँकि धरतीवासीयॊं से इस से ज्यादा की उम्मीद नही की जा सकती।ये वैज्ञानिक वहाँ जाकर जो करेगें वह जानिए।

चलो चाँद की ओर ।


चलो चाँद की ओर ।


धरती को तो नर्क बना दिया


परमाणु बंम्ब से इसे सजा दिया


बचा ना कोई छोर॥


बचा ना कोई छोर...


चलो चाँद की ओर ... चलो....


चाँद पे जा के बंम सजाएं


नफरत की फसलें लहराएं


करें धर्मके नाम पर शोर॥


चलो चाँद की ओर ।
चलो चाँद की ओर ।

Sunday, July 27, 2008

कोई गीत कैसे गाएगा.....

दहशत भरे माहौल में,कोई गीत कैसे गाएगा?

आँसुओं के बीच कोई, कैसे मुस्कराएगा?


मगर यहाँ कमी कहाँ, लोग ऐसे हैं बहुत।

कुर्सी पे बैठा हो कहीं भी, रोटी सेंक जाएगा।


मौत आदमी की बनी, मोहरा उन के खेल का।

राज उन का हर जगह है,बाहर या हो जेल का।


क्षुब्ध होकर आदमी,उठाए बंदूक उन्हें ,फर्क क्या!

रुकती नही है गाड़ी उनकी, ज्यों सफर हो रेल का।


बिका हुआ है आदमी,खरीददार चाहिए।

हों भले चरित्रहीन, सत्य के गीत गाइए।


कौन-सी दिशा की ओर, देश अपना चल दिया।

मौन क्यूँ यहाँ सभी, कोई तो समझाइए ?


देखे कौन आके अब, इन्सान को समझाएगा।

दहशत भरे माहौल में, कोई गीत कैसे गाएगा?

Tuesday, July 22, 2008

कुत्ते की मौत

अपनी गली में
एक घर के बाहर
कुत्ते को रोते देख कर
परेशान हो गया।

वह कुत्ता रोता बिलखता

तड़प-तड़प कर सो गया।


इस से पहले मैनें कभी कुत्ते को

मरते ना देखा था

बस लोगो को कहते सुना था
एक दिन ऐसा आएगा
शैतान ,
कुत्ते की मौत मारा जाएगा।



वह कुत्ता तो शैतान ना था।

वह सदा रात-रात भर जाग कर,

लोगो की सेवा करता रहा।

उस की मौत पर

किसी आँख से एक आँसु ना बहा।



शायद इसी लिए लोग

कुत्ते की मौत मरना

पसंद नही करते।

क्यूँकि वह जानते हैं

कुत्ते जैसी सेवा वह ना कर पाएगें।

वह तो एक-दूसरे के परदे ढापनें के लिए

सदा एक-दूसरे की अर्थी सजाएगें।


Sunday, July 20, 2008

नर-नारी और बराबरी का हक

मत ढूंढो !
अपने आप को
दूसरो के भीतर,
वहाँ तुम पराजित हो जाओगे।
मत माँगों !
जो सदा से तुम्हारा है।
अपने को लज्जित पाओगे।


एक -दूसरे पर
लांछन लगाने से

कुछ नही होगा।

दोनों को बस
एक रास्ता

अपनाना होगा।

जब भी कोई काम
बिना दूजे की सहमति के
जो भी कुछ करे,

किया जाए,

गलत माना जाएगा।
उसी दिन
बराबरी का
बिगुल बज जाएगा।
इन्सानियत का जन्म होगा
शैतान मर जाएगा।

Thursday, July 17, 2008

क्षणिकाएं

कुछ पुरानी क्षणिकाएं

एहसान

तुम मेरी बात पर

कभी ना नही कहना।

मेरे बोझ को सदा

अपना समझ

सहना।

२.

सरकार

वादे और सपनें बेचनें की कला

सिर्फ

अपना भला।

३.

नेता

कुत्तों का मालिक

जनता का लुटेरा

एक बड़े घर में

जबरन

डाले है डेरा

४.

वामपंथी

इन के झंडें का रंग लाल

इन के मुँह का रंग लाल

इन का भोजन का रंग लाल

फिर भी कुर्सी पर बैठें हैं।

इसे कहते हैं हमारे देश में

प्रजातंत्र

है ना कमाल!!!

Monday, July 14, 2008

थोड़ा-सा प्यार होता....

जुदाई में उनकी दिल, ज़ार-ज़ार रोता।
गर दिलमें उनके, थोड़ा-सा प्यार होता।

मसीहा बन कहर, ढहाते ना रहते,
गर अपनें मोमिन पर, एतबार होता।

तबस्सुम की खातिर, दु्श्मन ना बनाते,
किसी और की है , जो मालुम होता।

ज़मानें की परवाह , छोड़ी थी हमनें,
ज़मानें संग चलते जो,एतराज होता।

अच्छा किया, ठोकर मारी जो तुमनें,
परमजीत, आशिक, शायर ना होता।

जुदाई में उनका दिल, ज़ार-ज़ार रोता।
गर दिलमें उनके, थोड़ा-सा प्यार होता।

Saturday, July 12, 2008

अपरिवर्तन

कुछ भी तो नही बदला!
सच्चा आदमी आज भी रोता है।

सुनते थे...समय बदल देता है सभी कुछ,
जो आज हो रहा है -
वह तब भी तो होता था।
सच्चा आदमी तब भी तो रोता था।

आज भी वह रेंग रहा है कीड़ा बना।
अपने ही दुखों से सना।
अपनी ही परछाईयों से भयभीत।
अपने को खुद ही ढाँढस बंधाता है।
अपनी इच्छाओं को मार कर खाता है।


अपने आस-पास बिखरे सपनें,
हमारी कल्पनाओं के पंख,
मंदिरों में बजते शंख,
सभी तो चल रहा है,
जैसे हमेशा चलता था।
सुनहरा सपना-
जैसे हमारे भीतर पलता था।

सपनों को पूरा करनें की चाहत में,
हमेशा की तरह
आदमी अपनें को खोता है।

कुछ भी तो नही बदला!

सच्चा आदमी आज भी रोता है।

Saturday, March 22, 2008

होली खेलें कैसे



होली खेलें कैसे नंदलाल ,राधा रूठी रे।
पहले बनूँगी मैं नंदलाल, राधा रूठी रे।

नाची बहुत बंसी पे तेरी,मेरे कान्हा प्यारे।
अब चाहूँ बंसी मैं बजाऊं,नाचें कान्हा प्यारे।
तब चाहे मोहे रंग दे जितना,जैसे कहे मैं नाचूँ,
सदियों से नाच-नाच कर थक गए पैर हमारे।

होली खेले कैसे नंदलाल ,राधा रूठी रे।
पहले बनूँगी मैं नंदलाल, राधा रूठी रे।

मैं ग्वाला बन गाएं चराऊँ,पानी तुम भर लाना रे।
जमनामें नहाओ जब तुम,निवस्त्र तुम्हें सताऊँ रे।
लोक -लाज तज,सुन बंसी मेरी नंगे पाँवों आ जाना,
कैसा लगता कान्हा तब तुम्हे,हम को जरा बताओ रे।

होली खेले कैसे नंदलाल ,राधा रूठी रे।
पहले बनूँगी मैं नंदलाल, राधा रूठी रे।

राधा की इस माँग के कारन, कान्हा चुप-छुप जाए रे।
बड़े-बूढें राधा को बोलॆं ,उलटी गंगा ना, बहाओ रे।
पर राधा नही रूकनें वाली,ह्ठ कब किसनें छोड़ा है,
परमजीत अब कोई आके इन सब को समझाओ रे।


होली खेले कैसे नंदलाल ,राधा रूठी रे।
पहले बनूँगी मैं नंदलाल, राधा रूठी रे।

Thursday, March 20, 2008

वो जब याद आए बहुत याद आए......



सोच रहा था इस होली पर सभी कुछ ना कुछ लिख रहे हैं ।क्यूँ ना मैं भी कोई गीत लिखूँ । यही सोच कर कुछ लि्खना चाह रहा था।लेकिन समझ नही पा रहा था की क्या लिखूँ।पता नही कैसे पुरानें दिन याद आ गए।अपनें पुरानें दोस्तों की याद आनें लगी।.....वह भी क्या दिन थे जब होली के आनें से पहले ही यह तय हो जाता था कि इस बार हमारी टोली को कहाँ कहाँ धावा मारना है।किस से कैसे हिसाब चुकता करना है।होली के आते ही पिछली होली में जिनके हाथों अपनी बुरी गत बनी थी ,इस बार कैसे उन से बदला लेना है।बस यही प्लान बनते रह्ते थे।आज इसी लिए शायद होली के आनें पर मुझे उन की कमी खलनें लगी थी।उन की याद आते ही मैं गीत गुनगुनानें लगा।साथ ही साथ उसे लिखता भी जा रहा था।अभी मैनें चार लाईनें ही लिखी थी।.......मुझे ऐसा आभास हुआ जैसे मेरे भीतर कोई और बैठा हुआ मेरे लिखे का किसी दूसरे रूप में उत्तर दे रहा है। इस लिए उस समय जो लिखते समय,दूसरी पंक्तियां मेरे भीतर आ रही थी,वह भी मैनें लिख ली।अब देखिए कैसे एक दर्द भरा गीत हास्य गीत बन गया। मुझे लगता है यह सब होली का असर है ,जिसनें मेरे भीतर ऐसे भाव पैदा कर दिए।.. ..अब आप वह गीत कैसा बना?....आप भी पढ़ें।


इस होली में रोएंगी आँखियाँ साथी मेरे पास नही।
होली के रंग बहुत हैं महँगें, पैसे मेरे पास नही।
याद में उनकी आँसू बहते,लौटेगें कभी,आस नही।
उधारी खा ,कोई कब लौटाता,ऐसा कोई इतिहास नही।
जिस रंगमें तुमनें रंगा था उस रंग को ना भूल सका,
मुफत खोर खा पी कर कब का, वह किस्सा ही भूल चुका,
अब दूजा कोई रंग चड़ेगा,मुझको ऐसी आस नही।
तुम क्यूँ बैठ ,होली पर रोते,रोनॆं की कोई बात नही,

***************************************************

इस होली में रोएंगी आँखियाँ साथी मेरे पास नही।
याद में उनकी आँसू बहते,लौटेगें कभी,आस नही।

जिस रंगमें तुमनें रंगा था उस रंग को ना भूल सका,
अब दूजा कोई रंग चड़ेगा,मुझको ऐसी आस नही।

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होली के रंग बहुत हैं महँगें, पैसे मेरे पास नही।
उधारी खा ,कोई कब लौटाता,ऐसा कोई इतिहास नही।

मुफत खोर खा पी कर कब का, वह किस्सा ही भूल चुका,

तुम क्यूँ बैठ के होली पर रोते,रोनॆं की कोई बात नही।

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Sunday, March 16, 2008

अकेलापन



रात अंधेरी
मन डाले फेरी
दूर कही पर
फिर दिख रही है
पड़ी हुई इक
सपनों की ढेरी।

रूकता नही
पल भर भी
बींनने निकला है
बचपन कही
मिल जाए
मन फिर से
खिल जाए
लेकिन
इतनी अच्छी
कहाँ
किस्मत ये मेरी।

जैसे-जैसे मैं
हो रहा बूढा हूँ
फिर पीछे
लौटनें को
मन मेरा करता है
आहें, नित भरता है
जो पीछे छूटा था
वही तो
आगे है
ना जानें फिर भी
क्यूँ ये मन
भागे है
आदत है मेरी।

पल-पल में मेरे शब्द
अर्थ बदल जाते हैं
कल मेरे साथ थे
आज चिड़ाते हैं
सब समय का खेला है
जीवन को मैनें तो
ऐसे ही धकेला है
बिल्कुल अकेला है
कहानी
ये किस की है
तेरी या मेरी।

रात अंधेरी
मन डाले फेरी
दूर कही पर
फिर दिख रही है
पड़ी हुई इक
सपनों की ढेरी।

Friday, March 14, 2008

नकली दाँत

जब भी वह सामनें से गुजरते थे।
मुस्कराते हुए गुजरते थे।
उन की मुस्कराहट हमेशा मेरे मन को,
एक अजीब -सा सकून दे जाती थी।

ना जाने कितनें बरसो से
मैं उन्हें यूँ ही देख रहा हूँ
वह हर जगह
जहाँ भी वह टकराते थे,
मुस्कताते थे।

लेकिन एक दिन,
जब सड़क पार करते हुए,
मैं एक तेज जाती कार की चपेट में आ गया।
अंधेरा-सा मेरी आँखों मे छा गया।
मैं छिटक कर सड़्क के बीच पड़ा था।
वह फिर मुझे नजर आए
मुझे देख कर
फिर वैसे ही मुस्कराए।
और आगे चल दिए।

उस दिन मैं उन की
मुस्कराहट से बदहवास हुआ।
उन की मुस्कराहट के पीछे छुपे
नकली दाँतों का मुझे एहसास हुआ।

गजल



मुस्कराता-सा हरिक चेहरा यहाँ लगता है।
चहरे पर चेहरा यह, बहुत खूब फबता है।

हम रोज तेरी महफिल में आते थे मगर,
जिक्र हमारा हुआ हो कभी,नही लगता है।

जाम हर बार तुम्हीं थमाते थे, हाथों में,
कहीं मोहब्बत थी ये तुम्हारी, क्यूँ लगता है।

मुस्कराता-सा हरिक चहरा यहाँ लगता है।
चहरे पर चहरा यह, बहुत खूब फबता है।

दर्द दिल में छुपाए यूँ ही हम तो जीए जाएंगें,
इस जमानें का है दस्तूर यही ,क्यूँ लगता है।

नही ऐसा मिला कोई, जो कहे तुम्हारा है,
हरिक शख्स यहाँ अपनें लिए, जीता मरता है।

Monday, March 10, 2008

कोई बता दे......



धड़्कनें कुछ कह रही हैं आज तुमसे,
प्यार की दुनिया चलो फिर से बसा लें।
दुश्मनों ने जो उजाड़ा घर हमारा,
नींव कुछ गहरी करें,फिरसे बना लें।

ख्वाइशे हर शख्स करता हैं यहाँ पर,
पूरी कहाँ होती सभी की,यह बता दे।
सपनों को सजाना, तमन्ना सभी की,
रूकती नही क्यूँकर ,मुझको बता दे।

सहर हकीकत को ब्यां करता रहा है,
फिर क्यूँ शब में रहते हैं सपने सजाते।
आदमी फितरत कैसे छोडे अपनी,
तन्हाइयों में रहते हैं आँसू बहाते।

भूल जाओ उनको जो छोड़ जाते,
भूलते कैसे हैं ,हमको कोई बता दे।
कर सके जिस दिन,नयी वो सहर होगी
परमजीत ना कोई हमें वह दिन दिखा दे।



Sunday, March 9, 2008

ईश्वर का बेटा


दूर कहीं आसमान से
कोई शब्द बरसाता है।
अपनी मस्ती में वह
अक्सर गाता है।
उस के शब्द
धरा पर बिखर जाते हैं।
जिसे पीर पैंगंबर चुन-चुन कर
अपनी मरजी से सजाते हैं।
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उस दिन जब तुम
आसमान में बैठे
कुछ गा रहे थे
अपनी ही मस्ती में गुम
अपनें को ही अपना गीत
सुना रहे थे।
मैनें तुम्हारे शब्दों को
टूट कर धरती पर बिखरते देखा।
वह जहाँ भी गिरे
फूल बन-बन के खिले।
एक अजीब सी महक
उन से आ रही थी
जिसने मुझे ना मालूम कब
अपनी ओर खींचा।
अपने मोहपाश में भींचा।

इस लिए
मुझे वह जहाँ भी मिले

मैनें उन्हें चुन लिया
जैसा सही लगा
उन्हें बुन लिया।

आज वही शब्द
मुझे मुँह चिढाते है।
ना मालूम
क्यूँ मुझे डराते हैं?

मैंने तो एक गीत
लिखने का प्रयास किया था
सभी पाए रोशनी
इसी लिए जलाया
एक प्रेम का दीया था।

मैं कहाँ जानता था
मेरे दीये से ये
दूजों के घर जलाएगें।
मेरे शब्दों की आड़ में
इक-दूजें को खाएगें।


आज मेरी तरह
वह गीत को सजाने वाला
कही अकेला बैठा
रो रहा होगा।
"काश!मेरा लिखा गीत मिट जाए"
बाँट जोह रहा होगा
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उन्होनें जो सजाया
सभी एक गीत के स्वर हैं
लिखने का ढंग भले
अलग- अलग होगा,
लेकिन जिन्हें वे सुनाना चाहते थे
उन्होनें समझनें मे भूल की
शायद हरिक को
उसके अंह ने टोका।
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इस लिए मैं अब
पीर,पैगंबरों के सजाए गीत
नही गाता।
बस!अब यही है
मुझे भाता।


जब भी कोई गीत गाता है
सुन लेता हूँ ,
क्यूँकि जान चुका हूँ
इन सब की तरह ,
मैं भी तेरा
बेटा ही हूँ।


Thursday, March 6, 2008

आँधियां और मैं



टूटनें दो पत्तों को इन आँधियों से
आँधियों पर जोर कब किसका चला है?

जिन पत्तों की डंडियां, कमजोर, यारों,
टूटकर गिर जाएं, इस में ही भला है।

कब तक बचाएगा कोई आँधियों से,
हरिक अपनें को बचानें में लगा है।

कौन किसी का साथ दे सकता यहाँ है,
भाग्य मे टूटना जिसके बँधा है ।


फैलती ज्वाला की लपटें हर कहीं पर,
सूखे पत्ते ,पेड़ ही इस में जलेगें।

आज जो नव वृक्ष इन पर हँस रहें हैं,
वो भी कल धूल में यूँहीं मिलेगें।

व्यथित क्यूँ कर ,परमजीत देख इनको
सृष्टि नें विधिविधान यूँ ही रचा है।

टूटनें दो पत्तों को इन आँधियों से ,
आँधियों पर जोर कब किसका चला है?


Wednesday, March 5, 2008

संभल जाओ



उजड ना जाए फिर से कहीं ये गुलशन मेरा
लगाओ आग ना रहता है यहाँ दिलवर मेरा
बहुत गँवा के इसे यारो !हमनें पाया है,
चिराग घर का ही ,जला ना दे ,घर मेरा।

कभी भाषा के नाम पर, लड़-लड़ मरते हैं
कभी मजहब की आग में हम जलते हैं
ऐसी आग जो भड़्काते हैं, उन्हें पहचानों,
तुम्हें मोहरा बना वो अपनी चाल चलते हैं।


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राज करने की नीति
इस पर जो चलते हैं
उन्हें
किससे होती है प्रीति?

अपनें फायदे के लिए
सभी कुछ दाँव पर लगाते हैं
कुर्सीयों के मोह में
आदमीयों को खाते हैं।

"एक बिहारी सो बीमारी"
कैसी बात करते हैं?
नेताओं की करनी का फल
भाई के सिर मड़ते हैं।

कौन-सी जगह है वो
जहाँ बहा नही पसीना है
फुटपाथों पर सोता है,
हक यह भी अब, छीना है।

समस्या यहाँ जो भी है
नेताओं की करनी है
जिस की कीमत हमतुम को
अपनी जां से भरनी है।

अपनें ही देश में
आजादी हमें कहाँ है?
कश्मीर कहने को
वैसे तो अपना है।
मेरा घर होगा वहाँ
देखा, बस सपना है।

छुट-पुट-सी बातों में
सार कुछ ना पाओगे
अपना जो बीजा है
खुद ही अब खाओगे।

Tuesday, March 4, 2008

होई है वही जो राम रच राखी



चल रहे हैं सब मगर,
दूसरे पर है नजर,
कौन जानें रास्ते में,
साथ तेरा छोड़ दे।
जिस का साथ तूनें लिआ,
उसीनें तुझे गम ये दिया,
जा चुका है वह कहीं,
अपना मुख मोड़ के।
किस्मतमें जिसकी लिख दिया,
बदल सका है कौन यहाँ,
भाग-भाग थक गया ,
अपनी इस होड़ से।
राम को वन जाना पड़ा,
रावण को सिर गँवाना पड़ा,
सीता समाई धरती में,
रामजी को छोड़ के।
तू जिधर भी भागता है,
रातों को जागता है,
कुछ भी बदल ना सकेगा,
तेरी धूप-दोड़ से।
फिर भी इस जहां में ,
सपनें हम बुनते हैं,
फूल हम चुनते हैं,
सच से मुँह मोड़ के।
कौन बदल सका यहाँ,
विधाता का लिखा हुआ,
भोगना पड़ा सभी को सदा,
भले ,साधू,संत, चोर है ।

Sunday, March 2, 2008

मुक्तक माला-११



आज तुम्हारा टूटा दिल फिर जोड़ेगें।
हर तूफा का रूख मिलकर मोड़ेगें।
क्यूँ अपने से शिकायत है तुम्हें,
दोस्त कहा है अब साथ ना छॊड़ेगें।

कौन सदा साथ रहता है यहाँ आप जान जाएगें।
कौन धारा बिन सहारों के बहता है, यहाँ ना पाएगें।
ऊपर चढना है,तो शर्म कैसी अपनों से करनी,
उन के सिर पाँव रख मंजिल पहुँच जाएगें।

यही द्स्तूर है अब जमाने का यारों।
वफा प्यार तुम जितना भी पुकारो।
कौन कब कहाँ बदले है रंग गिरगिट-सा,
हम भी उसी जमानें की पैदाईश है प्यारो।

Wednesday, February 27, 2008

मौन



बस! अब रहनें दो!

बहुत कह चुके तुम से

हर बार हमारे प्रश्न पर मौन रहना,

अब तुम्हारी आदत बन चुकी है।



बहुत भागता रहा हूँ-

उन के लिए जो कभी किसी काम की नही,

बस संग्रह है।

बहुत बहस करता रहा हूँ-

उस के लिए जो कभी खतम होती नही,

समय की बर्बादी है।



इसी लिए अब मैनें -

तुम्हारे मौन को ,

अपना उत्तर बनाया है

Tuesday, February 26, 2008

तुम बिन कौन...



रात गई आया उजियाला फिर नयी प्रभात हुई,

तुम बिन कौन सहारा मेरा,जिसने मेरी बात सुनी।


तेरा लिए आसरा चलता अनजानें इन रस्तों पर,

कदम-कदम पर अपनों की हमनें तो बस घात सही।


क्या हम मंजिल पर पहुँचेगें तेरे किए इशारों पर,

या फिर रस्ते में टूटेगी साँसों की सौगात कहीं।


रात गई आया उजियाला फिर नयी प्रभात हुई,

तुम बिन कौन सहारा मेरा,जिसने मेरी बात सुनी।


Saturday, February 23, 2008

धोखा!



गुलशन में फूल खिल गए सारे गुलाब के,
जब चहरे पे तबुस्सुम, आई जनाब के,


यही सोच हमनें हाथ अपना बढा दिया,
खुद ही हुआ अफसोस, हमनें ये क्या किया,


किसी ओर के ख्यालों में वो मुस्कराए थे,
नजरों मॆ हमने खुद को क्यूँकर गिरा दिया,


अब नाराज हैं खुद से,खफा खुद से हो गए,
अपनें ही हाथों क्यूँकर हुए टुकड़ें ये दिल के,


गुलशन में फूल खिल गए सारे गुलाब के,
जब चहरे पे तबुस्सुम, आई जनाब के,


Friday, February 22, 2008

आनंद उत्सव

कोई अज्ञात भय
जो सदा रहता है घेरे चारो ओर
उसी से बचनें की आशा में
हम बस भागते रहते हैं।
नही जानते कहाँ जाना है,
कहाँ जा रहे हैं?
इन दिशाविहीन रास्तों पर,
जो कभी हमें कहीं पहुँचाते भी नही,
इन पर चलते हुए ऐसा महसूस होता है-
हम एक ही जगह खड़े-खड़े,
कदमताल करते रह जाते हैं।
जहाँ से चले थे
वहीं अपनें को पाते हैं।

लेकिन सब प्रयास करनें पर भी,
भय नही मिटता!
हमारे सारे प्रयास
इसी भय से मुक्त होनें की खातिर
हमें और भी भटकाते हैं,
हमारा भय को और भी बढाते हैं।

आओ! सब मिलकर
इस अज्ञात भय में कूद जाएं।
मिलकर एक नया
आनंद उत्सव मनाएं।

Wednesday, January 16, 2008

जीवन-चक्र

सुबह

आँखें खोली

किसी ने एक वृत

मेरे आगमन से पूर्व बनाया

और मुझ से कहा-

इस वृत की रेखा पर दोडों

और इस का अन्त खोजों

अब मैं इस वृत की रेखा पर

और मोसम

मुझ पर दोड़ता है ।

Tuesday, January 15, 2008

सपना

इस दोड़ में,

ना मालूम क्या सोच कर,

तुम दोड़ शुरू करते हो?

जिसका खामियाजा़

नफरत से भरते हो।



हम कभी आगे होगें,कभी पीछे,

कभी ऊपर होगें, कभी नीचे,

हरिक पीछे वाला,

आगे वाले पर षड्यंत्र रचने का,

आरोप लगाएगा,

ऐसी दोड़ का क्या फायदा?

जो भाईचारा मिटाएगा।



इस दोड़ से बेहतर है,

कोई मिलकर कदम उठाएं,

जो आहत ना करे किसी को,

सब के मन को भाएं।



लेकिन ऐसी बातों को,

कौन अब मानता है?

अब आगे बढ़्नें की अभिलाषा में,

कौन कब कुचला गया,

यह बात जानता है?



तुम कहते हो-आज मौज,

मस्ती,सुविधाओं का संग्रह,

सब सुखों को समेंटते जाना,

यही है असली जीना।

जैसा चाहो वैसा ही खाना-पीना।



तुम आज प्रकृति को,

अपने अनुकूल बनाना चाहते हो।

तभी तो हरिक कदम पर,

अपनों का लहू बहाते हो।

हरी-भरी धरती को,

बंजर बनाते हो।

ऐसा कर तुम

क्या सु्ख पाओगे

प्राकृति के विरूध जाकर,

अपने को गवाँओगे।



यदि सच में सुखी होना चाहते हो तो,

अपनें को प्राकृति के अनुकूल कर लो,

एक सुन्दर -सा रंग तुम भी भर दो।

एक सुन्दर-सा रंग तुम भी भर दो।

Sunday, January 13, 2008

हारा हुआ आदमी


"मैं’
आसानी से
छोड़ा जा सकता तो,
सभी सुखी होते
आज के
इंसान की इंन्सानियत देख,
नही रोते।
"मैं"को मारनें से पहले
आदमी मर जाता है।
इसी लिए
हरिक आदमी यहाँ,
"मैं" को पालता पोस्ता है
जबकि उसी के हाथों
दुख पाता है।

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हार जाता जिन्दगी से जब कभी इंन्सान ।

दूसरों से हो खफा, बन जाता है हैवान ।

अपना पराया कोई, आता नही नजर,

तब जीतने की चाहमें, बिक जाते हैं ईमान ।


Sunday, January 6, 2008

मुक्तक माला-१०



१.


एक डोर मे पिरोये हैं मोती उसने।

दोस्ती नाम है उस की बनाई माला का।

हमे क्यों ना हो ऐतबार तुम पर ,

बंदा में भी हूँ उसी पाठशाला का।

२.


ज्यादा बोलनें से कोई अच्छा नही होता

ऊचाँ बोलनें से कोई सच्चा नही होता

भीड़ जहाँ हो वहीं सच हो, यह जरूरी तो नही,

ऐसी सोच रखना यारों, अच्छा नही होता।

३.


अब तो सच का साथ देने से भय लगता है।

अपनें कमजोर होनें का एहसास जगता है।

इसी लिए भीड़ मे भी लुट जाता है, कोई,

किसी के दिल में शोला नही भड़कता है।

४.


जब सभी रिश्ते ही बेमानी होने लगें।

जब जानबूझ कर नादानी होनें लगे।

तब हमें झूठ ही सच नजर आएगा,

ताजुब ना करना हरिक आँख रोनें लगे।