भीतर का संवाद
जीवन भी एक अजीब पहेली है..इन्सान जिनके सुख के लिये जीवन भर संघर्ष करता रहता है वह जिनके लिये घर-बार जमीन जयदात को जोड़ता रहता है, वही लोग एक दिन उस इन्सान को भूल जाते हैं, जिन्होनें जीवन भर के संघर्ष के बाद सब साधन उनके लिये जुटाये हैं। वह इन्सान साधनों के सामने उन्हें बौना नजर आने लगता है...साधन बड़े हो जाते हैं और उन्हें निर्मित करने वाला गौण हो जाता है। उन्हें उस इन्सान से कोई सरोकार नही रहता....उसके प्रति उनके क्या कर्तव्य हैं इस का बोध उन्हें अपनें भीतर महसूस ही नहीं होता। ऐसे में इन्सान अपने जीवन के आखिरी पड़ाव को जीता हुआ सोचता है उसका जीवन व्यर्थ ही चला गया...इससे बेहतर होता यदि वह उस समय के वर्तमान पलों का आनंद लेता हुआ अपना जीवन व्यतीत करता। सोचता हूँ मेरे जनक कितनी गहन सोच, विचार-चेतना के धनी थे, उनके सचेत करने पर भी मैं मूर्ख ही बना रहा। उनका यह कहना बहुत गहरा अर्थ रखता था कि यदि इन कर्मो मे प्रवृत होना है तो प्रतिफल की अभिलाषा को मन में जनमनें ही मत देना....नही तो अंतत:सिवा पछतावे व दुख के कुछ भी हाथ नही आयेगा। चलो, कोई बात नही....जो बीत गई सो बात गई, जहाँ जागो वही सवेरा समझो। लेकिन सोचता हूँ क्या इस मोह-माया से इन्सान इतनी सहजता से मुक्त हो पाता है ?.....शायद मुक्त हो सकता है....। शायद नही हो सकता...। ...या फिर एक नये संघर्ष की तैयारी में लग जाता है....जिसमें अंतत: उसकी पराजय निश्चित है,....क्या ये सच नही है ? आज एक नीतिज्ञ महापुरूष के जीवन की एक घटना याद आ रही है...जिसने अपने विरोधियों को समाप्त करनें के लिये उन्हीं के साथ बैठ कर विषपान कर लिआ था...उस नीतिज्ञ के साथ उसके विरोधी भी समाप्त हो गये थे। समझ नही पा रहा उस नीतिज्ञ की इस नीति को विजय के रूप में देखूँ या पराजय के रूप में...??