भीतर का संवाद
जब अपनेपन का एहसास मरने लगता है तब महसूस होता है कि इन्सान किन के लिये अच्छे -बुरे काम करके सुख सुविधायें जुटाता रहता है। तब अंतर्मन स्वयं के प्रति ही विद्रोह करने लगता है।अपनी मूर्खता पर इतना ज्यादा खींज पैदा कर लेता है कि फिर उसका मन किसी पर विश्वास करनें की कल्पना मात्र से भयभीत हो जाता है। मन यह माननें को तैयार ही नही होता कि कोई उसके प्रति ईमानदारी दिखा सकता है। लेकिन इसमे मन का क्या दोष है..?..मानव स्वाभाव है कि वह अपनें किये गये छोटे-बड़ें किसी भी कृत के प्रति नकारत्मक सोच को स्वीकार कर ही नही पाता। क्यों कि वह जानता है कि जो कृत अन्य को सहज व सरल लग रहा है उसे करने के लिये उसने क्या कुछ खोया है यह अन्य को कभी नजर ही नही आता या यह कहे कि कोई उसे महत्व ही नही देना चाहता। उन्हें मात्र उपलब्ध साधन ही नजर आता है...ऐसे मे यदि वह साधन सामुहिकता के समय किसी विशेष व्यक्ति मात्र की मेहनत का नतीजा भी हो तो सभी उस पर अधिकार मानने लगते हैं...जबकि वे जानते हुए भी अन्जान बनें रहना चाहते हैं और ये माननें को तैयार ही नही होते कि वे मात्र लालच व लोभ के कारण ऐसा कर रहे हैं। अंतत:यही लालच और लोभ दूसरे के प्रति द्वैष व स्वार्थ की भावना को जन्म देता है। हम सदैव दूसरों से अपने अधिकार की बात करते हैं लेकिन स्वयं कभी यह विचारने की कोशिश नही करते कि हमने दूसरों को कितना अधिकार दिया है। आज जो सामाजिक व परिवारिक टूटन आ रही है उसका मूल कारण भी शायद यही है। हम अपनों के साथ रहते हुए भी अपनें कृत इतनी गोपनीयता से करते हैं कि जब कभी वे कृत उजागर होते हैं तो साथ रहने वाला अपने को ठगा-सा महसूस करता है....सब को समझ है कि ये सब गलत है लेकिन आज जो ताना-बाना समाज व परिवार का बन चुका है वह ईमानदारी से किसी कृत को करने ही नही देता, यदि कोई करने कि कोशिश करे तो उसे परेशानीयाँ उठानी पड़ती है कि दुबारा वह इस तरह कार्य करनें की कल्पना मात्र से भी भयभीत हो जाता है। पता नही हम किस दिशा में जा रहे हैं...भविष्य मे समाज कैसा होगा परिवार कैसा होगा....कई बार तो लगता है...शायद परिवार होगा ही नही...सभी अकेले-अकेले होगें....और यदि कभी साथ दिखेगें भी तो किसी निजी स्वार्थ की पूर्ति के प्रति वशीभूत होकर साथ-साथ नजर आयेगें।