भीतर का संवाद
बहुदा लोग कहते हैं कि ईमानदार आदमी सुखी रहता है...यह बात सही है...लेकिन इस ईमानदारी का परिणाम जब अपने परिवार पर असर दिखानें लगता है तो ईमानदारी डगमगानें लगती है...अपनों के तानें ही खींज़ पैदा करने लगते हैं। कारण साफ है...आप शैतानों में रह कर साधुता नही साध सकते....वे आपकी लगोंटी भी उतार कर ले जायेगें या यह कहे कि आप ईमानदार रह कर मर तो सकते हैं लेकिन आज जी नही सकते। क्यूँ कि जब हमारे जीवन यापन करने का वास्ता ही बेईमान लोगों से पड़ता है तो ऐसे में ईमानदार रहने का भ्रम पालना अपने को धोखा देना मात्र ही है। बहुत समय पहले कहीं पढ़ा था...कि ईमानदारी की एक सीमा होती है...प्रत्येक व्यक्ति एक सीमा तक ही ईमानदार रहता है...कुछ लोग एक लाख रूपय की ईमानदारी रखते हैं तो कुछ लोग दस लाख पर पहुँचते ही ईमानदारी को तिलांजली दे देते हैं...इसी तरह की ईमानदारी आज हमें देखने को मिलती है।लेकिन इसका ये मतलब नहीं की ईमानदार लोगों का अकाल है....वे हमारे समाज में मौजूद हैं...भले ही गिनती मात्र के हो....लेकिन समाज मे उनकी कहीं कोई पूछ नही है। वे लोग आत्मिक सतोषी तो हैं...लेकिन शायद ही कभी किसी की नजर में वे आते हैं..। ऐसे लोग गुमनाम अंधेरों में पैदा होते हैं और मर जाते हैं ...किसी को कोई खबर नही होती। समाज में अर्थ की पूजा होती है...चरित्र की नही...क्योंकि हमारी मानसिकता ही ऐसी बन चुकी है.....नाम और अर्थ के प्रति हमारी आसक्ति ने एक ऐसे समाज का निर्माण कर दिया है जिसे अब तोड़ा नही जा सकता..आज हम पूरी तरह गुलाम हो चुके हैं ऐसी मानसिकता के...ऐसे में किसी ईमानदारी की लहर के पैदा होनें ही कामना करना अपने को धोखे में रखना ही है। हाँ, एक नयी मानसिकता के जन्म से ईमानदारी का मरता हुआ बीज फिर से अंकुरित हो सकता है...वह है यदि ईमानदारी का मुल्य अर्थ से बड़ा माना जाये। ईमानदारी को सम्मान मिलें। लेकिन ऐसा कभी हो पायेगा अब...? ...असंभव-सा लगता है। लेकिन अभी भी उम्मीद पर दुनिया कायम है...उम्मीद कभी नही मरती...शायद कभी वह सुबह जरूर आयेगी। हरेक के भीतर ऐसी इक लौं सदा जलती रहती है....जो राख से ढकी रहती है लेकिन भीतर ही भीतर एक छोटा -सा अंगार सुलगता रहता है।जो अनूकूल समय पा कर प्रकाशमय हो ही जाया करता है।