भीतर कुछ तो मरा हुआ है
तभी तो बाहर आँखें जो भी देखती है
भीतर कुछ सुगबुगाहट होती तो है
लेकिन फिर ना जानें क्युँ
कुछ करने से पहले ही मर जाती है।
अतंर्मन बस देखता रहता है
कुछ करता नही।
क्युँ हर बार ऐसा ही होता है
फिर अकेले में बैठ
यह मन रोता है।
पहले यह मन
दुनिया को देख कर कुछ कहता था।
अब खुद से कुछ नही कह पाता।
कुछ ऐसा खोज रहा हूँ
जो कहनें और करनें के लायक हो।
लेकिन हर बार की तरह
खाली हाथ लौट आता हूँ।
अब तो लगनें लगा है
यहाँ ऐसा कुछ भी नही है
जो कुछ होनें का एहसास
कुछ करनें का एहसास
मुझे करा सके।
यह सच है या सपना
यह जाननें के लिए रुका हुआ हूँ।
बस! जागरण का इंतजार है।