Tuesday, January 15, 2008

सपना

इस दोड़ में,

ना मालूम क्या सोच कर,

तुम दोड़ शुरू करते हो?

जिसका खामियाजा़

नफरत से भरते हो।



हम कभी आगे होगें,कभी पीछे,

कभी ऊपर होगें, कभी नीचे,

हरिक पीछे वाला,

आगे वाले पर षड्यंत्र रचने का,

आरोप लगाएगा,

ऐसी दोड़ का क्या फायदा?

जो भाईचारा मिटाएगा।



इस दोड़ से बेहतर है,

कोई मिलकर कदम उठाएं,

जो आहत ना करे किसी को,

सब के मन को भाएं।



लेकिन ऐसी बातों को,

कौन अब मानता है?

अब आगे बढ़्नें की अभिलाषा में,

कौन कब कुचला गया,

यह बात जानता है?



तुम कहते हो-आज मौज,

मस्ती,सुविधाओं का संग्रह,

सब सुखों को समेंटते जाना,

यही है असली जीना।

जैसा चाहो वैसा ही खाना-पीना।



तुम आज प्रकृति को,

अपने अनुकूल बनाना चाहते हो।

तभी तो हरिक कदम पर,

अपनों का लहू बहाते हो।

हरी-भरी धरती को,

बंजर बनाते हो।

ऐसा कर तुम

क्या सु्ख पाओगे

प्राकृति के विरूध जाकर,

अपने को गवाँओगे।



यदि सच में सुखी होना चाहते हो तो,

अपनें को प्राकृति के अनुकूल कर लो,

एक सुन्दर -सा रंग तुम भी भर दो।

एक सुन्दर-सा रंग तुम भी भर दो।

5 comments:

  1. अति सुन्दर !!

    अगर आप को बुरा न लगे तो मेरे ख़याल से प्राकृति नही प्रकृति होना चाहिऐ।

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  2. bahut marmik bat kahi aapne kaviraj,sahi,jitne ki hod mein ek dusre ko tana kashi karte hai,aakhari lines behad sundar hai,rang bhro aur bhar lo.

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  3. आपका सपना बहुत सुंदर लगा अच्छी कविता बधाई लिखते रहिए धन्यवाद

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