अपने
कहे हुए
शब्द
फिर लौटते हैं
जैसे पंछी साँझ ढले
लौटते हैं
अपने नीड़ों की ओर।
सोचता हूँ...
काश!
मुझे मौन रहना आता
मैं जहाँ होता..
वहीं .....
मेरा बसेरा बन जाता।
तब शायद मैं जान पाता
उस सत्य को..
जो होते हुए भी
किसी को ..
नजर नही आता।
पाना सभी चाहते हैं..
लेकिन ..
जो पाता है
उसे कभी नही भाता।
क्योंकि-
सत्य को जानकर भी
स्वयं को नही जान पाता।
शब्द यात्रा .. मुझे अच्छा लगा बाली साहिब जी !! :)
ReplyDeleteबेहद गहरे अर्थों से लबरेज़ रचना
ReplyDeleteअपने ही शब्द जीवन टटोलते हैं।
ReplyDeleteachhi lagi par gehre bhav hain.
ReplyDeletekırşehir
ReplyDeletegümüşhane
yozgat
kırıkkale
kocaeli
4HSH