उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
किस बात अकड़ता मन मेरे,
इन ऊँची देख अटारीयों को।
अठखेली करती मृगनैंयनी
इन लालायित क्वारीयों को ।
सूरज भी साँझ को ढलता है
सच को सबने पहचाना है।
उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
नभ के आँगन जो खेल रहे,
चँदा तारे खो जायेगें ।
सपनें कितनें भी सुन्दर हो,
दिवस एक मर जायेगें।
निशि को भी बोध है भानु का
उसने भी कहना माना है।
उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
अपनों को उठाकर काँधों पर
अक्सर मरघट तुम जाते हो ।
मन शान्ती से भर जाता है,
जीवन निस्सार बताते हो।
पर बोध किसे सदा रहता है,
सब व्यर्थ ये खोना पाना है।
उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
किस बात अकड़ता मन मेरे,
इन ऊँची देख अटारीयों को।
अठखेली करती मृगनैंयनी
इन लालायित क्वारीयों को ।
सूरज भी साँझ को ढलता है
सच को सबने पहचाना है।
उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
नभ के आँगन जो खेल रहे,
चँदा तारे खो जायेगें ।
सपनें कितनें भी सुन्दर हो,
दिवस एक मर जायेगें।
निशि को भी बोध है भानु का
उसने भी कहना माना है।
उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
अपनों को उठाकर काँधों पर
अक्सर मरघट तुम जाते हो ।
मन शान्ती से भर जाता है,
जीवन निस्सार बताते हो।
पर बोध किसे सदा रहता है,
सब व्यर्थ ये खोना पाना है।
उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
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