ये कैसा वतन
ये कैसी आजादी ।
मरती है भूखी ...
जनता बेचारी ।
किसे फिक्र है
अपने सिवा यहाँ,
क्या देखी कभी है,
ऐसी लाचारी ।
हरिक शख्स
परेशां-सा
यहाँ जी रहा है।
महँगाई, भ्रष्टाचार
अन्याय पी रहा है।
जो कुर्सी पर बैठा
है वतन का सिपाही,
मेरे इस वतन का
कफन-सी रहा है।
जनता को फुर्सत
कहाँ है दोड़नें से
तुम पीछे रहे तो
ये गल्ती तुम्हारी।
छल से, बल से ,
बस आगे है रहना
वतन को ना जानें,
कैसे लगी ये बीमारी ।
ये कैसा वतन
ये कैसी आजादी ।
मरती है भूखी ...
जनता बेचारी ।
बहुत खूबसूरत रचना………………स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं !
ReplyDeleteफिर भी ...
ReplyDeleteऐसी आजादी खले, बाली जी के बोल |
ReplyDeleteउथल पुथल दिल में मचे, बड़ा चुकाया मोल |
बड़ा चुकाया मोल, रोल इन शैतानों का |
तानों से दे मार, गजब शै हुक्मरानों का |
राशन पानी स्वास्थ्य, बही शिक्षा सड़कों पर |
अंधकार अति गहन, करे क्या रोशन रविकर ||
प्रश्न तो उठना चाहेंगे।
ReplyDeleteकैसा वतन कैसी आज़ादी ....??
ReplyDeleteबिलकुल सही सवाल .......
gahan sawal.....anuttarit hai ye
ReplyDeleteयह कैसा वतन और कैसी आजादी । सही कहा बाली जी आपने ।
ReplyDeletebahut sochne ki vishay vastu h
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