भीतर का आदमी
बाहर आना नही चाहता।
क्यूँकि फरेब की दुनिया
उसे नही भाती।
यहाँ सच्चाई
नही मुस्कराती।
बाहर का आदमी
भीतर जाना नही चहता।
वहाँ उस का ओहदा
साथ नही जाता।
कोई भी उसे वहाँ
नजर नही आता।
ये दोनों आदमी
जिस दिन एक हो जाएंगें।
उस दिन हम इन्सान
कहलाएंगें।
बहुत बढ़िया बेहतरीन लिखते रहिए
ReplyDeletegreat ek acha sach ..hum sabhi jee churatey hai aur ankhey meechey muskuratey hai
ReplyDeleteभाई बहुत सुंदर रचना बधाई.
ReplyDeleteनीरज
बहुत भावनापूर्ण रचना
ReplyDeleteदीपक भारतदीप
बहुत अच्छा है सर !! ख़याल बहुत ही अच्छा है. लेकिन वो दिन आयेगा कब सरकार ?? कब आयेगा वो दिन ??
ReplyDeleteअगर मालिक ने यहाँ तक की सोच दी है तो रास्ता भी दिखाएगा। जाना तो बाहर के व्यक्ति को ही भीतर है - वो भी बाहर का बाहर छोडकर।
ReplyDeleteइस बार जब बंगला साहिब गया तो पंक्तियाँ लिखी थीं। भाव था -
जिस तरह हाथी अंकुश के बस में है, उसी तरह मन को गुरू के चरणों में एकाग्र करो।