Friday, September 5, 2008

"मन नंगा तो हर नारी से पंगा " लेख पर आई कुछ टिप्पणीयों पर विचार

शास्त्री जी के लेख से प्रभावित हो कर जो लेख लिखा मन नंगा तो हर नारी से पंगा ,उस पर कुछ टिप्पणीयां आई हैं। उन को पढ़ कर कुछ नए विचार मन में उठने लगे हैं।यहाँ एक बात स्पस्ट करना चाहूँगा कि यहाँ अपनें विचार प्रकट करनें का अभिप्राय यह नही है कि किसी की सोच से सहमति या असहमति जताई जाए।बल्कि हम तो चाहते हैं कि इस का कोई हल निकले।हमारी सोच को कोई नई दिशा मिले।जिस से नर-नारी के संबधों मे बड़ती दूरी को कुछ कम किया जा सके।शास्त्री जी ने सही लिखा है इस पर खुल कर चर्चा होनी चाहिए।
ई-गुरु राजीव जी की टिप्पणी पढ कर लगा कि शायद उन की बात काफी हद तक सही है।क्यूँ कि नंगा पन तभी नजर आ सकता है जब कोई उसे दिखाना चाहता है। इस टिप्पणी को पढ कर एक पुरानी याद ताजा हो आई। बात तब की है जब हम एक सरकारी कालोनी में रहते थे।हमारे घर से कुछ घर छोड़ कर एक पंडित जी का घर था।उन की चार बेटियां थी।एक का तो विवाह हो गया था,लेकिन बाकी की तीन वहीं रहती थी।ऐसी स्थिति में जैसा अक्सर होता है।उन के घर के आस-पास अक्सर लड़के किसी ना किसी बहानें से मडराते रहते थे।इस लिए उन लड़कियों से छेड़छाड़ का सिलसिला अक्सर चलता रहता था।कालोनी के लड़के जब भी मौका पाते थे उन मे से बड़ी व छोटी पर अक्सर छीटाँकशी करते रहते थे।लेकिन उन्हीं की बीच वाली बहन को, जोइक उन दोनों से ज्यादा सुन्दर थी।उस को कोई भी नही छेड़ता था।जब भी कोई लड़का उसे सामनें पाता था तो एक्दम चुप हो जाता था या फिर सिर झुका कर दूसरे रास्ते खिसक लेता था।काफि समय तक तो उन लड़को के इस व्यवाहर का कारण मुझे समझ ही नही आया।जब मैनें इस बारे में लड़को से पूछा तो उन्होंनें कहा- यह बहुत शरीफ लड़की है।यह जब भी हमारी ओर देखती है तो हमे ऐसा आभास होता है कि जैसे हमारी बहन देख रही है।इसी लिए उसे छेड़नें की हिम्मत किसी को नही पड़ती।
उस समय सोचनें को मजबूर हो गया कि कहीं ऐसा तो नही है कि हमारे मन पर दूसरों के मन व भावों का कोई चुंबकीय प्रभाव पड़ता है। जो हमें यह आभास कराता है कि फंला लड़्की दूसरों को आकृषित करनें के लिए ऐसे वस्त्र पहनती है या मात्र अपनी खुशी के लिए पहनती है।यहाँ यह बात कहना चाहूँगा कि यह बात नर-नारी दोनों पर समान रूप से लागू होती है।इस विषय पर खोज होनी चाहिए।
दूसरी टिप्पणी दिनेशराय द्विवेदी जी ने की है। उन से कहना चाहूँगा कि मैनें यह नही कहा कि शास्त्री जी ने जो कहा वह गलत है।बल्कि उन का लेख पढ़ कर ही मुझे इस विषय पर कुछ कहनें का मौका मिला है
आप ने सही कहा कि "लोगों को विचार करने दीजिए इस विषय पर। कोई निष्कर्ष शायद निकट भविष्य मे नहीं निकल पाए। लेकिन इस विचार-विमर्श से मन में छुपे विचार तो सामने आएँगे। शायद ये कोई रास्ता कभी दिखा सकें।" मै आप से पूरी तरह सहमत हूँ।
तीसरी टिप्पणी सतीश सक्सेना जी की है।उन्होनें कहा है कि-"हकीक़त में हमारा नंगपन, लोलुपता इस प्रकार के लेखों से बाहर आ रही है , कई ब्लाग ऐसे चल रहे हैं जिनमे स्त्री प्रसंग और संसर्ग चर्चा के बहाने ढूंढे जा रहे हैं ! और कड़वी सच्चाई यह भी है की ऐसे लेख पढने वालों की भीड़ कम नहीं है ! हिन्दी ब्लाग्स अभी शैशव अवस्था में है, लोग लिखते समय यह नही सोच पा रहे की लेखन का अर्थ क्या है , यह नही देख पा रहे की उनके इस प्रकार के लेखन के साथ साथ उनका चरित्र भी अमर हो जायेगा ! और उनके इसी चरित्र के साथ, उनके परिवार के संस्कार जुडेंगे ! जिसमें उतना ही स्थान महिलाओं और लड़कियों का है जितना पुरुषों का ! एक दिन यह दंभ और चरित्र सारे घर का चरित्र बन जाएगा ! ईश्वर सद्बुद्धि दे !"
मुझे लगता है कि सतीश जी इस विषय से भागना चाहते हैं।लेकिन शायद वह यह नही जानते कि जब हम चलते हैं तो रास्तों में पहाड़,नदीया, खाईयां सभी से हमें सामना करना ही पड़ता है। ऐसे मे अपना रास्ता बदलते रहें तो हम कहीं भी नही पहुँच पाएगें।
सभी टिप्पणी करने वालों का धन्यवाद।

4 comments:

  1. बड़ा गहन चिन्तन चल रहा है यहाँ.

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  2. http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2008/09/blog-post_04.html

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  3. आप ने आज उदाहरण पेश किया। उस की सत्यता से इन्कार नहीं है, वह आप का निजि अनुभव है। मगर छेड़ने वाले लड़के भी कुछ ही और विशिष्ठ ही रहे होंगे। उन लड़कियों को देख कर सारे लड़के तो उत्तेजित न हो जाया करते होंगे।
    इस से यह तो पता लगता ही है कि सारे पुरुष नग्नता और महिलाओं के विशिष्ठ व्यवहार से प्रभावित नहीं होते।
    इस तरह इसे सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता है। फिर जहाँ सभी के महिलाओं के बुर्का पहनने का नियम होगा वहाँ एक महिला बुर्के से सिर भी बाहर निकाले दिखेगी तो नग्नता नजर आएगी। जिन समाजों में साड़ी पहनी जाती है वहाँ कुर्ता सलवार भी अभद्रता नजर आता है और कुर्ता सलवार पहनने वालों में साड़ी। जहाँ पोशाक बहुत नाम मात्र को पहनना आम है वहाँ वह भी अभद्रता नजर नहीं आती। पश्चिमी समाज में चुम्बन हर तरह के प्यार और अभिवादन का तरीका है। लेकिन अनेक स्थानों पर इसे केवल यौन इच्छा ही समझा जाता है। इस कारण यह कहना कि अर्धनग्नता से पुरुषों पर मानसिक बलात्कार हो रहा है। एक सापेक्ष बात है इसे नियम नहीं बनाया जा सकता है । महिलाओं पर यह आरोप लगाना पुरुष की कमजोरी है। वे भी क्या पुरुष हैं? जो एक तस्वीर देखी और बहक गए।

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  4. परम जीत जी

    क्या बतायेगे वो कौन सी मानसिकता होती हैं
    १. जब एक नाबालिक बच्ची का बलात्कार होता हैं ??
    २ जब एक NUN का बलात्कार होता हैं
    ३. जब एक ५८ साल की विदेशी महिला का बलात्कार होता हैं जैसी ही वो एअरपोर्ट पर टैक्सी लेती हैं
    अब ये कह कर रास्ते ना बदले और डिस्कशन को ख़तम ना करे की ये हादसे हैं .
    जवाब दे की कहा थी वो अध् नंगी . तीनो एक्साम्प्ले के लिंक भी दे सकती हूँ
    ये जो पुरूष की मानसिकता हैं की अपनी कमजोरी को वो स्त्री पर थोपता हैं हम सब उस पर चर्चा करना चाहते हैं . उस पर ये कहना की जवान पुरूष स्त्री को देख कर अपना आपा खो देता हें और इस लिये स्त्री को अपनी पूरे शरीर को ढांक कर रखना होगा कितना सही हैं ?? या ये कहना की पुरूष और स्त्री मे biological difference का परिणाम हैं बलात्कार सो स्त्री की नैतिक ज़िम्मेदारी हैं की वो अपने को पुरूष की कामुक नज़रो से बचाए ??
    पुरूष की नैतिक ज़िम्मेदारी क्या हैं , इस पर क्यों नहीं डिस्कशन होता ?? क्या क्या पुरूष करे की अपनी इन्दिर्यों पर उसका कंट्रोल बढे इस पर क्यूँ नहीं बात होती ??
    क्यों हर डिस्कशन का दायरा केवल नारी को नैतिक मूल्य समझाने मे ख़तम होता हैं . जब हिंदू सनातन धरम को मानने वालो के घरो मे पूजा होती हैं तो एक रजस्वला स्त्री को पूजा इत्यादि मे नहीं भाग लेने देते लेकिन वही हिंदू सिख समाज मे गुरु ग्रन्थ साहिब के पाठ के समय एसी कोई दुविधा नहीं होती क्युकी वहाँ स्त्री पुरूष की समानता को माना जाता हैं . आप से भी निवेदन हैं की बात समानता की करे उस डिस्कशन को करे जिस को करने से आप सब हमेशा बचते हैं . नारी के शरीर और कपड़ो से ऊपर उठ कर बात हो . अध् नंगी कह कर आप अपनी गलतियों पर "परदा " डालते " हैं

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