Wednesday, June 10, 2009

मुक्तक-माला - १८

हर तरफ आग ही आग है, कौन बुझाए ?
ऐसे जहाँ मे, कैसे कोई, घर बसाए ?
जिसनें कोशिशें की ,वह हार गया,
राख के ढेर में मुँह अपना कैसे छुपाए ?

रोशनाई हो जहाँ में,दीया जलाया है।
अन्धेरों को उजालों से सजाया है।
पता ना था,इन्सा के भीतर अंधेरा है,
ख्याल किसी को क्यूँ ना आया है?

12 comments:

  1. laajawab likha hai. kya aap kawya se gehra sarokar rakhte hain? good job

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  2. dono muktak-behtareen..khas puchoge to pahla wala. :) Badhai.

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  3. लाजवाब लिखा है............... बागी तेवरों के साथ

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  4. यह पोस्ट तो मुझे "असतो मां सद्गमय:, तमसो मा ज्योतिर्गमय:" की याद दिलाती है।

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  5. kya baat hai kamaal ka likha hai aapne.........
    dono muktak bahut se ehsaason ko samete hain...........
    अक्षय-मन

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  6. क्षमा चाहूंगा लेकिन प्रथम छंद में जो निराशा उमड़-घुमड़ रही है, उसके लिए बीसवीं स‌दी के महान दार्शनिकों में स‌े एक अल्लामा इक़बाल स‌ाहब की दो पंक्तियां बिना अनुमति के शाया करता हूं, चूंकि मैं एक आशावादी इंसान हूं, इसलिए ऎसा कर रहा हूं -
    तू शाहीं है, परवाज है काम तेरा
    तेरे स‌ामने आसमां और भी हैं
    तू शाहीं है, बसेरा कर पहाड़ों की चट्टानों पर
    तेरे स‌ामने आसमां और भी हैं

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  7. आदरणीय बाली जी,
    बहुत बढ़िया रचना ---हार्दिक बधाई।
    पूनम

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