कब से देख रहा हूँ ।
टूटन ही टूटन है ।
सब धीरे-धीरे बिखरा है ।
एंकाकीपन बस निखरा है ।
भीतर कुछ भी नही बचा है ।
लेकिन शोर बहुत है बाहर के परिवर्तन का।
बन गई हैं ऊँची-ऊँची मीनारें,
हरिक घर में हैं,
मन बहलाव के साधन,
क्यूँकि आपस का विशवास
मर चुका है तड़प-तड़प कर
जैसा मरना हो जल बिन मछली का।
अब रातों को माँ लोरी नही सुनाती
दादी तो कभी नजर नही आती
पापा हरदम थके-थके से
अपने ही भीतर रहते गुम हैं
अक्सर माँ की आँखें दिखती नम हैं
जैसे प्रतिक्षा करता हो बादल बरसने का।
सब दोड़ रहे हैं दिशाविहीन,
पथ पर बस चलना सीखा है।
मंजिल की किस को चिन्ता है।
प्रतिस्पर्धा है आपस की
पराजय किसी को स्वीकार नही
क्यूँकि भीतर अब प्यार नही।
यही चित्र उभरा है अब जीवन का।
चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: ठहराव, साधन, मछली, विशवास, माँ, दादी, आँखें, बादल, चित्र, जीवन, परमजीत, बाली, कविता,
प्रतिस्पर्धा है आपस की
ReplyDeleteपराजय किसी को स्वीकार नही
मुख्य मुद्दा बस यही आकर खत्म हो जाता है...
बहुत अच्छी रचना है परमजीत जी
सुनीता(शानू)
सब दोड़ रहे हैं दिशाविहीन,
ReplyDeleteपथ पर बस चलना सीखा है।
मंजिल की किस को चिन्ता है।
प्रतिस्पर्धा है आपस की
पराजय किसी को स्वीकार नही
क्यूँकि भीतर अब प्यार नही।
----------------
आपकी पूरी कविता भावुकता का बोध कराती है।
दीपक भारत दीप
सब दोड़ रहे हैं दिशाविहीन,
ReplyDeleteपथ पर बस चलना सीखा है।
--बहुत खूब भाव हैं भाई..अच्छा लगा इस रचना को पढ़ना.
भीतर कुछ भी नही बचा है ।
ReplyDeleteलेकिन शोर बहुत है बाहर के परिवर्तन का।
सशक्त अभिव्यक्ति
सब दोड़ रहे हैं दिशाविहीन,
ReplyDeleteपथ पर बस चलना सीखा है।
मंजिल की किस को चिन्ता है।
प्रतिस्पर्धा है आपस की
पराजय किसी को स्वीकार नही
क्यूँकि भीतर अब प्यार नही।
यही चित्र उभरा है अब जीवन का।
बेहतरीन लाइनें
सच कह रहे हैं और यही जीवन हम सबको जीना है । क्यों न इसे थोड़ा सा बेहतर बना लें ?
ReplyDeleteघुघूती बासूती