बूढे़बरगद की छईयां में
पत्तों का टूट-टूट गिरना
जीवन को दर्पण,
दिखा-दीखा जाता है।
पड़े-पड़े सूखते हैं पत्ते
हवा के झोकों संग
लुड़क-पुड़क जाते हैं
दूर कही छितराए से
गुम हो जाते हैं
फिर खॊजता हूँ मैं
जहाँ वह नही होता
बरगद के पेड़ पर
लिपटी अमर बेल तकता हूँ
पेड़ मुझ पर हसँता है
मैं हसँता पेड़ पर
सदियॊ से हम दोनों
यही करते आए हैं।
चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: बरगद, जीवन, दर्पण, हवा, अमर, बेल, कविता, परमजीतबाली,
गहरा चिंत्तंन
ReplyDeleteदीपक भारतदीप्
सुंदर भावों से ओत प्रोत कविता है।
ReplyDeleteदूर कहीं छितराए से
गुम हो जाते हैं
फिर खॊजता हूँ मैं
जहाँ वह नहीं होता
बधाई स्वीकारें
प्रिय परमजीत,
ReplyDeleteयह कविता अपने आप में बहुत अर्थपूर्ण है. निम्न पंक्तियां:
"पत्तों का टूट-टूट गिरना
जीवन को दर्पण,
दिखा-दीखा जाता है।"
यदि हम समझ सकते तो छद्म खुशियों के पीछे ना भागते -- शास्त्री
हे प्रभु, मुझे अपने दिव्य ज्ञान से भर दीजिये
जिससे मेरा हल कदम दूसरों के लिये अनुग्रह का कारण हो,
हर शब्द दुखी को सांत्वना एवं रचनाकर्मी को प्रेरणा दे,
हर पल मुझे यह लगे की मैं आपके और अधिक निकट
होता जा रहा हूं.