Wednesday, November 7, 2007

बिना प्रयास


नामालूम तुम
कहाँ से उतर कर आती हो?
बिखर-बिखर जाती हो
भावों के मोती बन
एक माला-सी बन जाती हो।


जबकि मैनें तुम्हें
कई बार गहरे सागर में
डुबकी मार कर खोजा।
बियाबान जंगलों मे
बहुत लोचा।
तुम्हारे बारे में
अपनें भीतर
उतर-उतर कर
कितना सोचा।
आस-पास खॊज-खोज कर
हार गया।


लेकिन
मेरा प्रयास व्यर्थ
हो जाता है।
मन बहुत झुँझलाता है।
तुम्हारा चमकते हुए प्रकटना
हर बार मुझे
अचंभित कर जाता है।
जब बिना प्रयास
मन मेरा गाता है।
कविता का
जन्म हो जाता है।

4 comments:

  1. यही कविता है
    जो सहज ही कवि के मन से प्रेरणा का जल पाकर फूट पडे। बाकि केवल लिखना है!

    संजय गुलाटी मुसाफिर

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  2. सुंदर रचना ...दिल को छूने वाली

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  3. जब बिना प्रयास
    मन मेरा गाता है।
    कविता का
    जन्म हो जाता है।
    ------ सत्य है..कभी अनायास ही कविता का जन्म होता है और हम स्वयं भी अचंभित हो जाते हैं.

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  4. जब बिना प्रयास
    मन मेरा गाता है।
    कविता का
    जन्म हो जाता है।

    --उम्दा..बधाई.

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