ना जानें क्या
अतीत में
ढूंढता है मन मेरा।
उन खंडरों के बीच,
ना मैं हूँ,
ना कोई घर मेरा।
पर जोह रहा हूँ बाट कब से
उसके आनें की सदा।
आएगा या ना आएगा तू ,
देखता रस्ता तेरा।
टूट कर पत्तें गिरें,
जो भी, पीलें हो गए।
वृक्ष से हो कर जुदा,
जा कर कहीं पर सो गए।
कल हाल अपना भी यहीं,
होना है,मन जानें सदा।
दुनिया की फुलवारी से जैसे,
फूल होते हैं जुदा।
ना जानें क्या
अतीत में
ढूंढता है मन मेरा।
उन खंडरों के बीच,
ना मैं हूँ,
ना कोई घर मेरा।
nice to see this..keep up the spirit
ReplyDeleteआप कि कविता पढ़ कर बहुतसी पुरानी यादें ताज़ा हो गई है. कविता अच्छी लगी. बधाई.
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है आपने परमजीत जी ..पढ़ के बहुत अच्छा लगा
ReplyDeleteआपकी कविता अत्यन्त सुंदर और संवेदना को छूती हुई है , बधाईयाँ !
ReplyDeleteआपका ब्लाग अच्छा है. यह कविता अच्छी लगी.
ReplyDeleteधन्यवाद.