अब की बार जो बादल बरसा
रपट गिरे हम आँगन में ।
अपनों से ही खफा हो गए
जैसे कोई बेगानों से ।
कोई इन्हें समझाए यारों
दोस्त मिलते हैं किस्मतवालों को ।
आपस की रंजिश में पड़कर
खोना ना इन दिवानों को ।
सब की गुस्ताखी की सजाएं
यारों हम को दे डालों ।
हँसते-हँसते सह लेगें हम
उठते हुए तूफानों को ।
रंजिश में डूबे यारों,
जरा हमारी बात सुनों--
चार दिनों तक सजनी है महफिल
लौटेंगे फिर, निज धामों को ।
सच कह रहे हैं.
ReplyDeleteसच्चा गीत… क्या लय बनी है…। अतिसुंदर!!!
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