मत कहिए कि मुझे दाल भात खाने दीजिए...किसी को किसी का दाल-भात छीनने का हक़ नहीं। लेकिन ये हक़ कोई छीन रहा है। जो छीन रहा है, उसे हम जानते हैं। क्यों नहीं ज़ाहिर करना चाहते, इसकी वजहें हमें तलाशनी होंगी।" अविनाश जी, आप का लेख पढ रहा था ।लेकिन कुछ बातें मेरी समझ में नही आई ।अतः आप से पूछनें की इच्छा जागृत हुई । आप तो एक संपादक थे फिर भी आप को सच जाहिर करने के लिए वजहें तलाशनें की जरूरत क्यूँ पड़ी ?
फिर आप का लिखा प्रसंग पढा जो आप को याद हो आया था।उस मे लिखे इन वाक्यांशों से मै काफि प्रभावित हुआ-"हम जब संताल परगना में अख़बार निकाल रहे थे, तो साईंनाथ की संवेदना हमारी प्रेरणा थी। हमने फोटोग्राफर से कहा था, जहां जहां भूखे नंगे लोग मिलें, उनकी तस्वीरें लो, उनकी बदहाली छापो। हम सुखी लोगों का अख़बार नहीं निकालना चाहते।"आप के विचार सचमुच बहुत महान हैं। गरीबों के प्रति इतनी हमदर्दी आजकल के जमाने में देखने को नही मिलती। लेकिन एक नेक और हमदर्द इंसान से, जो कि एक अखबार का संपादक भी हो यह उम्मीद तो की जा सकती थी कि आप अपनें अखबार में "भूख निवारण फंड" नाम से उन गरीबों के लिए धन एकत्र करनें हेतु एक विज्ञापन तो अपनी अखबार में मुफ्त में छाप देते। ताकी उन भूखों नंगॊं को दाल- भात का जुगाड़ तो हो जाता कुछ दिनों के लिए ।आप तो बस अपनी अखबार के लिए मसाला ही जुटाते रहे।क्या आप जैसे एक संवेदनशील संपादक को यह शॊभा देता है ?
दूसरी आप की यह बात कि-"बाद में राज्य सरकार को मानवाधिकार आयोग ने नोटिस भी भेजा, लेकिन सरकारें चतुर होती हैं। बड़ी चतुराई से कह दिया गया कि सिदो हेम्ब्रम की मौत भूख से नहीं हुई।"हमारे कुछ हजम नही हुई। आप के रहते सरकार ने इतना बड़ा झूठ कैसे बोल दिया।आपने अपने अखबार के जरिए उनका भंडाफोड़ क्यूँ नही किया?
तीसरी बात आप ने किस आधार पर कही-"ऐसे मुल्क में आप कैसे कह सकते हैं, मुझे दाल-भात खाने दीजिए! मैं आपके हाथ जोड़ता हूं- मत कहिए कि मुझे दाल-भात खाने दीजिए।" मेरी समझ मे नही आया कि आपने यह बात क्यों कही ?
कही आप यह तो नही चाहते थे कि बाकी लोग जिन्हें यह खाने को मिल रही है(दाल-भात) वह भी भूख से "सिदो हेम्ब्रम" की तरह मर जाएं ताकी आप के अखबार को गरीबों की हमदर्दी लूटने के और मौकें मिलते रहें और आप का अखबार भी चलता रहें ?
हम नए चिट्ठाकार हैं ।अभी हमारी समझ भी कम है।कृपया हमें भी समझाएं ताकी आप के पदचिन्हों पर चल कर हम भी नाम कमा सके। हम आप के सदा आभारी रहेगें।
प्रश्न एकदम सही हैं भाई..हम तो दाल-भात के अलावा कभी कभी बिरयानी खाने का भी मन बना रहे थे..लेकिन यहाँ तो दाल-भात के लिये ही मना कर दिया जा रहा है...बात तो हमारे भी समझ नहीं आयी ..पर हम सोचे कि हम तो वैसे ही मोटी बुद्धि वाले हैं..कहां समझ पांयेंगे इतने वरिष्ठ और संवेदनशील संपादक महोदय की बात...लेकिन जब आपने पूछा तो हिम्मत बन गयी...
ReplyDelete..."हम जब संताल परगना में अख़बार निकाल रहे थे, तो साईंनाथ की संवेदना हमारी प्रेरणा थी। हमने फोटोग्राफर से कहा था, जहां जहां भूखे नंगे लोग मिलें, उनकी तस्वीरें लो, उनकी बदहाली छापो। हम सुखी लोगों का अख़बार नहीं निकालना चाहते।"...
ReplyDeleteयह है अखबारी दुनिया का फ्राडीय सच!!!
परमजीत जी ने जिस सादगी से यह पोस्ट लिखा है उसका जवाब ज्ञानदत्त जी ने अपने कमेंट में कर दिया और शायद कही कही आपको भी इसका आभास है।
ReplyDeleteहम दाल-भात भी न खाएं. गदहे खाएं किसमिस-चिरोंजी और गाल बजाएं .
ReplyDeleteएक गाना याद आ रहा है भाई-
ReplyDelete" भोलापन तेरा भा गया हमको, सादगी पे तेरी हम मरते हैं।"
जिस मासुमियत के साथ यह पोस्ट लिखी गई है, उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि सही ही लिखा है।
परमजीत जीं आपकी यह रचना मेरे दिल को छू गयी
ReplyDeleteshbadlekh
मुझे यह व्यंग्य पसंद आया, बहुत बढ़िया रचना है
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखा है। जवाब नहीं आपका।
ReplyDeleteपरमजीत जी…
ReplyDeleteमुझे आपकी इमानदार प्रस्तुति हमेशा अच्छी लगती है…।यह भी उसी स्तर की है… बधाई!!!