सपनों में जीनें वाला
सच को क्या स्वीकार करेगा।
जिसने देखा कभी ना बादल
बेमोसम बरसात करेगा।
पतझड़ मे भी जिसकी बगिया
फूलॊं से भर जाती होगी ।
उससे आशाएं मत बाधों
वह तो है बस मन का रोगी।
रोगी से क्या आशा करनी
तुम से क्या व्यवाहर करेगा।
सपनों में जीनें वाला
सच को क्या स्वीकार करेगा।
झाँक आरसी मे तुम देखो
सूरत अपनी दिख जाएगी।
इधर-उधर क्या खोज रहे हो
बिन स्याही क्या लिख पाएगी।
सोये शेर के मुँह में कैसे
मृग उस का आहार बनेगा।
सपनों में जीनें वाला
सच को क्या स्वीकार करेगा।
व्यथा जीवन की जिसने जानी
उस का बेड़ा पार हो गया।
लहरों को गिननें जो बैठा
मन उसका मझधार हो गया।
भवँर फंसी किश्ती का माँझी
कैसे रस्ता पार करेगा।
सपनों में जीनें वाला
सच को क्या स्वीकार करेगा।
पंछी सभी दिशा से आते
मन बगिया भर जाती है।
जितना भी दाना डालो तुम
बगिया सब खा जाती है।
बंजर धरती पर कैसे
फूलों का अम्बार लगेगा।
सपनों में जीनें वाला
सच को क्या स्वीकार करेगा।
खाते-खाते थक जाते हैं
लौट चले फिर नीड़ों को।
कल नव चेतन हो आएगें
भोगेगें नव पीड़ों को।
चलता रहता जीवन ऎसे
जीवन का क्या सार मिलेगा।
सपनों में जीनें वाला
सच को क्या स्वीकार करेगा।
चलता रहता है यूँ ही सब
समझ ना कोई पाता है।
खाता मुँह की बार-बार
कितना यह इठलाता है।
आत्मबोध जब तक ना होगा
क्या जीवन आधार मिलेगा ?
सपनों में जीनें वाला
सच को क्या स्वीकार करेगा।
सही है कविता अच्छी है!
ReplyDeleteव्यथा जीवन की जिसने जानी
ReplyDeleteउस का बेड़ा पार हो गया।
लहरों को गिननें जो बैठा
मन उसका मझधार हो गया।
भवँर फंसी किश्ती का माँझी
कैसे रस्ता पार करेगा।
Jeeven or Satya ke Atti Nikat hae Aap ki yeh Rachana. Bahut sunder... likhte rakhiye.
आपकी कविता में आपके हृदय के भाव परिलक्षित हो रहे हैं- दीपक भारत दीप
ReplyDeleteएक अच्छी और सीधी कविता. बधाई.
ReplyDeleteअच्छी कविता है।
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