अब लौटे अपने ही भीतर
बहुत फरेब है इस मोहल्ले में।
किस से पूछे किस से समझे
उलट गए हैं सारे रिस्ते
चलना भी भूले हैं अब तो
अपने कोलाहल के भय से।
दिशाहीन भटकन पथिक की
अपनें पर मुखरित होती है।
पर स्वीकार किया कब इसने
कहाँ-कहाँ से खोज रहा है
झूठ को सच करने को खोजी
इस मोहल्ले मे रहने वाला
हवा के महल खड़े कर अक्सर
अपने मे उलझा रहता है
संग ले दूजों को उलझाता
पहुचेगा कैसे मंजिल पर
अपने आप से पूछ रहा है।
क्या कोई उत्तर यह पाएगा
तलवार हवा मे घुमाने से
या किसी और बहाने से।
बहुत फरेब है इस मोहल्ले मे
जनमदाता भी हमी हैं यारों
अब दोष मड़े किस के सिर पर।
अपनी ओर ना पलट के देखा
दूजो तक बस राह बना ली
हरिक जीवन की आपाधापी
रहती है यूही चलती पर।
जागो मन अब तो मत उलझो
उधार लिए जीवन दीपक मे।
अपना दीपक खुद बन जाना।
बढिया रचना है दोस्त... बस
ReplyDeleteनसीब में जिसके जो लिखा था,
वो तेरी महफ़िल में काम आया,
किसी के हिस्से में प्यास आई,
किसी के हिस्से में जाम आया.
इस दुनिया में दोस्ती की कमी न थी... अब किस को क्या मिला ये मुक्कदर की बात है
बढ़िया है। बैनर बड़े अच्छे लगा रखे हैं!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से लिखा है
ReplyDeleteपरमजीत बाली जी,
ReplyDeleteहमें आपके ईमेल आई डी की आवश्यकता है। यदि सम्भव हो तो आप उसे hindyugm@gmail.com पर भेज दें।
वैसे मुझे यहाँ यह संदेश नहीं भेजना चाहिए था लेकिन और कोई चारा नहीं ढूँढ पाया।
वाह भाई, बहुत बढ़िया..बधाई.
ReplyDeleteपरमजीत जी
ReplyDeleteपहली बार पढा आपको और कहूँगा कि आपने अपना नीयमित पाठक बना लिया।
बहुत सुन्दर रचना, बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
Please send your email address to me as well, shukla_abhinav at yahoo.com
ReplyDeleteपरमजीत जीं आपकी रचनायें देखकर ऐसा लगता है कि हो दोनों के विचार एक ही धरातल पर विचरते हैं। दीपक भारत दीप
ReplyDeleteपरमजीत जीं आपकी रचनायें देखकर ऐसा लगता है कि हम विचार एक ही धरातल पर विचरते हैं। दीपक भारत दीप
ReplyDeleteise sudhar kar prastut kiya gya hai